बादल कहता बात खरी
बादल मानव-सा हो गया,साज़िश ये करने लगा।
इक तल को सूखा छोड़ के,दूजा तल भरने लगा।।
कहता प्रदूषण का मोल है,इसका दोषी मैं नहीं।
मन में झाँकों फिर सोचिए,दोषी तुम ही हो कहीं।
तरुवर फलते हैं जहाँ,मंज़र वो भाने लगा।
इक तल को सूखा छोड़ के,दूजा तल भरने लगा।।
मौका देता हूँ आज भी,पेड़ों की सेवा करो।
दो काटो दस दो तुम लगा,इतनी तुम मेवा करो।
मैं आऊँगा फिर शौक़ से,बातें समझाने लगा।
इक तल को सूखा छोड़ के,दूजा तल भरने लगा।।
समता रखता ना आदमी,मैं भी फिर कैसे रखूँ।
जैसे को तैसा है मिले,यादें इतनी मैं रखूँ।
हँसके अंबर में रोब से,गीत खड़ा गाने लगा।
इक तल को सूखा छोड़ के,दूजा तल भरने लगा।।
शोषण करते लाचार का,खुद का भरते घर यहाँ।
रोटी को तरसे आदमी,अन्न उपजाता जो यहाँ।
मायूसी उसकी देख के,मैं भी घबराने लगा।
इक तल को सूखा छोड़ के,दूजा तल भरने लगा।।
प्रीतम तेरी ही प्रीत है,बरसूँगा मैं खेत में।
तूने बोया है बीज वो,उपजेगा अब रेत में।
पर पेड़ों की छाया करो,मैं भी अब आने लगा।
इक तल को सूखा छोड़ के,दूजा तल भरने लगा।।
आर.एस.प्रीतम
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