*बादल और किसान *
सुन्दर घाटी में जा बरसू, बादल सोच रहे हैं।
पानी लेकर कुछ बादल, अब देखो निकल पड़े हैं ।।
काली घटा घिरी है, देखो कैसे घुमड़ रहे हैं।
जानें कितना बरसेगें,सब सोच – सोच सिहरे हैं।।
बरसने निकले थे घाटी में,बीच में ही कुछ देखा ।
ताक रहे कुछ लोग, दिखते हड्डी के ढांचे सा ।।
थे किसान जो बाट जोहते, काश बरसते बादल ।
अगर फसल ना हुई,तो क्या खायेंगे मेरे बालक ।।
देख के इनको बादल अब, करुणा से भरते जाते ।
रंग बिरंगी घाटियों में,या बरसू इसी धरा पे ।।
ये किसान जो ज्यादा जग को देते, कम पाते हैं।
इनके कारण ही मनुष्य के, पेट भरे जाते हैं ।।
ये किसान मुस्काएं,इससे बड़ी भेट क्या होगी ।
इससे बढ़कर सुंदरता, इस जग में कहां मिलेगी ।।
कृषक दशा को देख के, बादल व्याकुल होकर रोए ।
तरल हो गई सारी वसुधा ,इतना उसे भिगोए ।।
✍️ प्रियंक उपाध्याय