बात तो तब होती
बात तो तब होती
जब तेरे मेरे दरमियां
कुछ बात होती।
जब भीतर कोई चिनगारी हो
तो गर्माहट महसूस होती है,
लेकिन तुम हमेशा से
ठंडे से ही मिले ।
इसलिए बातों में भी
बात न थी।
मेरी आवाज ,
लौटती सी आ गई सदा
किसी बैरंग चिठ्ठी की तरह,
मानो किसी सूनसान वादी में
खुद ही ने खुद को
पुकारा हो,
और हवाओं को
चीरते हुए
मेरी ही आवाज
लौट आई हो मुझ तक।
फिर कोशिश की
कि तुम्हे ही सुन लूं
पर तुमने अपने दिल के दरवाजे
खोले ही न थे कभी,
न अपनी आवाज
बाहर जाने दी तुमने,
न हमारी अंदर आने दी तुमने।
कुछ दिन
उस दरवाजे को
खोलने की नाकाम
कोशिश की हमने,
झांकते रहे तुम्हारे
दिल की दीवारों के बाहर से,
तुम्हारी खामोशी में
छिपे एहसासों को
पढने के लिए।
लेकिन अब ये
लुकाछिपी का खेल
बहुत हुआ।
अब अपनी हदें
जान ली हैं हमने।
अब तुम्हारे
उस दरवाजे
के पार
देखना
नही चाहते हैं हम,
जहां छिपी हो कोई ऐसी दास्तां
जिसे सह न पाए ये दिल।
अब तुम्हारे और मेरे बीच
की ये हद
बनी ही रहे तो अच्छा है,
न तुम्हारे किसे में
मैं जाऊं,
न तुम मेरे समंदर से
मुलाकात करो।