** बातें बहुत **
* गीतिका *
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बातें बहुत व्यवहार की, करते हैं लोग।
चालें बहुत शतरंज की, चलते हैं लोग।
अनजान बन जाते मगर, सब है मालूम।
निज स्वार्थ के ही मोहरे, बनते हैं लोग।
हैं मोहरों जैसे अलग, सबके ही ढंग।
बिल्कुल जमाने से नहीं, डरते हैं लोग।
प्यादे मरेंगे ग़म नहीं, सस्ती है जान।
हर एक पग यह सोचकर, धरते हैं लोग।
मन से किया करते नहीं, परहित के कार्य।
लेकिन सहज मासूम से, दिखते हैं लोग।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य, मण्डी (हि.प्र.)