बाण चलाना भूल गया ( महावीर कर्ण )
अंधकार है घना,भेड़िया सबकी लाशें नोच रहा
युद्धभूमि में मृत्यु द्वार पर कर्ण पड़ा ये सोच रहा
जन्म से ही मैं रहा अभागा सबने रिश्ता तोड़ लिया
नवजात अभी था तभी मात ने गंगधार में छोड़ दिया
माँ ने मुझे प्रवाहित करके अपना हित तो साध लिया
मगर पता न चला आज तक मैने क्या अपराध किया
महलों में होना था जिसको झोपड़ियों में निवास किया
हर पल,हर क्षण, हर स्तर पर लोगों ने उपहास किया
गुरु होकर भी परशुराम जी जातिवाद में फँसे रहे
कमल सरीखे आजीवन ही कीचड़ में वो धँसे रहे
ज्ञान दिया,फिर अंतकाल में भूलूँगा ये श्राप दिया
नहीं समझ पाया मैं उन्होने पुण्य किया या पाप किया
अर्जुन हो या दुर्योधन पर मैं न किसी से कमतर था
सूतपुत्र था किन्तु योग्यता में इन सबसे बेहतर था
जीवन का यह चक्रव्यूह ही मेरे गले का फाँस बना
महाराज बनना था जिसको वो महलों का दास बना
सोचा था कर ब्याह द्रोपदी से उसको घर लाऊँगा
बागों के सुन्दर फूलों से अपना महल सजाऊँगा
उच्च जाति का होने का पर उसने भी अभिमान किया
भरी सभा में पांचाली ने जी भरकर अपमान किया
देवराज ने भी मुझसे ब्राह्मण होने का स्वांग किया
कवच और कुण्डल मेरा धोखे से मुझसे माँग लिया
दुर्योधन ने स्वार्थ की खातिर सिर पर ताज सजाया था
अर्जुन से लड़ने के लिए मुझको अँगराज बनाया था
खुश रहता था स्वयं से जब तक मैं बिल्कुल अंजाना था
बहुत हुआ दुख जब कुन्ती माता ने मुझे पहचाना था
अर्जुन की खातिर जीवन का दान माँगने आई थीं
कर्ण से उसका पौरुष और सम्मान माँगने आई थीं
छिड़ा महाभारत का रण तब कितना मैं अकुलाया था
सूतपुत्र था इसीलिए न सेनापती बनाया था
महारथी था कर्ण मगर हर कदम उसे दुत्कार मिली
जब कोई न बचा अंत में तब जाकर तलवार मिली
शल्य की तीखी बातों के यदि चर्चे आम नहीं होते
अर्जुन मारा जाता यदि सँग में घनश्याम नहीं होते
समझ सका न जीवन भर रुख था किस तरफ हवाओं का
दुख है भला बना क्यों साक्षी मैं उन दो घटनाओं का
एक द्रोपदी चीरहरण में स्वाभिमान क्यों न डोला
दूजा अभिमन्यु से घात पर भी मैने मुख न खोला
परशुराम के शाप से सारा ताना-बाना भूल गया
लगा खींचने रथ का पहिया बाण चलाना भूल गया
रण में हुआ निहत्था जब अर्जुन ने मुझ पर वार किया
मरने का दुख नहीं मुझे पर क्यों ऐसा व्यवहार किया
सोच रहा हूँ जात-पाँत का बंधन कैसे टूटेगा
चढ़ा रंग जो रूढ़िवादिता का अब कैसे छूटेगा
सूर्य पुत्र को सूतपुत्र बनने में कोई लाज नहीं
सभी जरूरी हैं वर्ना चल सकता कभी समाज नहीं
मानवता भी तो अब संजय सारा सुध-बुध खो बैठी
कर्माधारित वर्ण व्यवस्था जन्म अधारित हो बैठी
राख पड़ी है सत्य के ऊपर अब तो गर्द हटाने दो
मानवता को बचाना हो तो जात-पाँत मिट जाने दो
बोला सूर्य देव देखो ये लाल हुआ बेचारा है
स्वयं हार न मानी जिसने वो तकदीर से हारा है
अंतिम वक़्त है मेरा कोई गोद में शीश उठा लेता
मरता चैन से अगर कोई बेटा कहकर लिपटा लेता
तभी सूर्य की एक किरण ने आकर तन को घेर लिया
और इस तरह दानवीर ने दुनिया से मुँह फेर लिया