बाढ़ की विभीषिका की वह काली रात!
उन्नीस अगस्त की वह काली रात,
जम कर हो रही थी बरसात,
आसमान में बादल गुरा्र्ते रहे,
तड़ित तडिका बिजुरिया चमकाते रहे,
लोग थे कि जन्माष्टमी मनाते रहे!
सोचा भी न था कि,
इतना बड़ा खेला हो जाएगा,
गारा मिट्टी का ऐसा रेला ,
आ जाएगा,
जो दर्जनों जिंदगी को,
अपने आगोश में,
समा जाएगा!
त्राहिमाम त्राहिमाम चित्कारते रहे,
नदी नाले उफान बढ़ाते रहे,
पूर्व इतिहास हमें याद दिलाते रहे,
भूगोल से नया नक्सा बनाते रहे,
जहां बसावट थी कुछ पल पहले,
वहां नदी का बसेरा था,
जो कोई आया सामने,
अपने आगोश में समेट रहा था,
ना घर ही बचा,
ना खेत ही रहा!
बह गयी क ई जिंदगियां,
बिना भेदभाव के,
इस काली रात में,
इंसा हो या पशु,
बह गए खैरात में,
जमीनें जमीं दोज हो ही गई,
घर आंगन की दिवारें भी ढह गई,
स्कुटर और कारें,
तो तैर रही थी,
बड़े बड़े पेड़ों की डालें,
अपने मे समेटे हुए थी,
सब कुछ बह रहा था,
इस काली रात में,
हम भी बह गए जज़्बात में!
बस बच जाए जीवन,
भागते रहे,
परिवार को साथ में लिए,
हाथ को हाथ में लिए,
बचाना है जीवन,
बस यही सोच रहे थे,
शीघ्र चलो आगे,
कह रहे थे,
गिरते पड़ते चल रहे थे,
सभंल सभंल कर चलो कह रहे थे,
ऊपर से नीचे तक सीहर गये थे,
हे प्रभो बचाले कह रहे थे,
बचेंगे भी अब हम श संकित रहे,
इस काली रात में बेचैन रहे!
सुबह की किरण में आस जगी,
अब तो जिंदगी बच ही गई,
शासन प्रशासन की भी आमद हुई,
राहत की खैरात की आहट हुई,
ऐसी आशंकाओं को पहले हम जताते रहे,
अब उसी आक्रोश को हम दोहराते रहे,
इतने आहत हुए कि बस चिखते चिल्लाते रहे!
खेलते हैं वो प्रकृति से,
अपने क्षणिक लाभ को,
गरियाते थे तब वो,
हमारे प्रतिकार को,
आज मसीहा बन कर,
घूमते हैं यहां,
हमें भी बताएं कोई,
हम जाएं कहां,
छीन गया आशियाना,
रोजगार भी छीन गया,
राहत के पैबंदों से,
हमें खरीद ही लिया,
भविष्य की चिताओं में,
दूबले हुए जा रहे हैं,
अरे ये सब हम किसको बता रहे हैं……?