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8 Feb 2018 · 12 min read

‘बाजारवाद और बालसाहित्य’

डॉ. उमेशचन्द्र सिरसवारी

किसी भी देश या समाज के भविष्य का अनुमान वर्तमान बचपन को देखकर लगाया जा सकता है। बचपन के निर्माण में जिन तत्त्वों की प्रमुख भूमिका रही है, वे हैं- परिवार, वातावरण, विद्यालय और बच्चों को पढ़ने के लिए मिलने वाला साहित्य। जहाँ तक बालसाहित्य का प्रश्न है तो सामान्यतः 4 से 12 वर्ष तक की आयु वाले बालक-बालिकाओं के लिए लिखा जाने वाला साहित्य बालसाहित्य माना जाता है। साहित्य समाज का दर्पण है। प्रत्येक साहित्यिक विधा तत्कालीन परिस्थितियों की उपज होती है। हिंदी साहित्य का क्षेत्र विस्तृत और विविधता लिए हुए है। बालसाहित्य का आरम्भ सदियों से वाचिक परंपरा के रूप में हुआ। ‘‘जिस भाषा में बालसाहित्य का सृजन नहीं होता उसकी स्थिति उस स्त्री के समान होती है जिसकी संतान नहीं होती। प्रत्येक देश का भविष्य उसके बच्चों पर ही निर्भर होता है। वही उसके भावी निर्माता होते हैं। अतएव जो देश अपने इन भावी निर्माताओं के प्रति उदासीन रहता है उसका भविष्य अंधकार पूर्ण समझना चाहिए।’’1
आज के बालक कल के नागरिक हैं। अतः किसी देश का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए वहाँ के बालकों के सम्यक विकास की आवश्यकता है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने ठीक ही कहा था- ‘‘मैं हैरत में पड़ जाता हूँ कि किसी व्यक्ति या राष्ट्र का भविष्य जानने के लिए लोग तारों को देखते हैं। मैं ज्योतिष की गिनतियों में दिलचस्पी नहीं रखता। मुझे जब हिंदुस्तान का भविष्य देखने की इच्छा होती है तो बच्चों की आँखों और चेहरों को देखने की कोशिश करता हूँ। बच्चों के भाव मुझे भावी भारत की झलक दे जाते हैं।’’2 इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि बच्चे ही हमारे भारत के भावी कर्णधार हैं। भविष्य में राष्ट्र-निर्माण का दायित्त्व उन्हें वहन करना है। यही बालक राजनीतिज्ञ, प्रशासक, वैज्ञानिक, लेखक, साहित्यकार, कवि, समाजसेवी, सैनिक, राष्ट्ररक्षक, धर्म एवं संस्कृति के विशेषज्ञ, कुशल वक्ता, शिक्षक, प्राध्यापक, श्रेष्ठ खिलाड़ी आदि बनते हैं। अतः बाल्यावस्था से ही बच्चों के शारीरिक, मानसिक, शैक्षिक, एवं चारित्रिक विकास की आवश्यकता है।
बालक की उम्र बढ़ने के साथ-साथ ही उसका मानसिक विकास होता है, परिवार में सौहार्द का वातावरण बालक के मस्तिष्क पर सकारात्मक व स्वस्थ्य प्रभाव छोड़ता है, वहीं दूसरी तरफ पारिवारिक कलह उस पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं, जिससे उसमें विद्रोह और संघर्ष के लक्षण दिखाई देते हैं तो कभी सामंजस्य के। इन्हीं दोनों के बीच उसके मन में राग-द्वेष, ईर्ष्या, सुख-दुख आदि के भाव आते-जाते हैं। छोटे बच्चों का संसार अपने आकार-प्रकार, रंग-रूप में बड़े लोगों के संसार से सर्वथा भिन्न होता हैं। बड़ों के संसार में सभ्यता, संस्कृति, समाज, राष्ट्र, जाति, आदि पग-पग पर विद्यमान रहते हैं, जिनसे अलग करके हम व्यक्ति की कल्पना नहीं कर सकते। बच्चों को इन सबका ज्ञान नहीं होता, बच्चे निजी तौर पर न तो शिष्टता-सभ्यता का अर्थ समझते हैं और न ही समाज के नियम-विधानों की कोई चिन्ता उन्हें सताती है। उन्हें अपने खेल-खिलौनों, तस्वीर और पुस्तकों इत्यादि से जितना मोह होता है उतना किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति से नहीं। अपने खेल के साथियों को वह पारिवारिक सदस्यों से भी ज्यादा प्यार करते हैं। उनके संसार में व्यक्ति का संबंध केवल मनुष्यता के नाते होता है, देश, जाति, धर्म या वर्ण के आधार पर ़होने वाले सम्बन्धों की वहाँ कोई मान्यता नहीं होती। ‘‘संसार के सारे पदार्थ और कार्य बच्चों को व्यापार जैसे दिखाई देते हैं, बड़ों को नहीं। पहाड़, नदी या बादल को देखकर जो कौतूहल, जिज्ञासा, हर्ष या भय के भाव बच्चों के मन में उठते हैं, वैसे बड़ों के मन में नहीं उठते। बच्चों के लिए बड़े किसी परदेशी से कम परिचित नहीं होते, जैसे हम भारतीय किसी रूसी, जर्मन या अंग्रेज के बारे में एक अजनबीपन अनुभव करते हैं, वैसा ही अजनबीपन बच्चे हम बड़ों के बारे में अनुभव करते हैं।’’3
बालसाहित्य में मनोरंजन अहम कड़ी है। बालसाहित्य को लेकर विभिन्न विद्वानों ने अपने मत प्रस्तुत किए हैं। बालसाहित्य के पुरोधा निरंकारदेव ‘सेवक’ के अनुसार- ‘‘जिस साहित्य में बच्चों का मनोरंजन हो सके, जिसमें वे रस ले सकें और जिसके द्वारा वह अपनी भावनाओं एवं कल्पनाओं का विकास कर सकें, वह बालसाहित्य है।’’4 बालसाहित्य बच्चों में सहजता, सरलता, सज्जनता, सहनशीलता, सहिष्णुता, दयालुता तथा परोपकार आदि उदात्त भावनाओं का बीजारोपण करे, उन्हें अन्याय, अनीति, अनाचार, हिंसा तथा ईर्ष्या-द्वेष आदि कुत्सित भावनाओं से विरत करे, उनके कौतूहल का तार्किक शमन करे, उनका ज्ञानवर्द्धन करे, उनकी कल्पनाशक्ति का विकास करे, उन्हें आशावादी बनाए, उनमें आत्मसम्मान, आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता की भावना का संचार करे तथा अपने परिवेश के प्रति जागरूक, जिम्मेदार एवं संवेदनशील बनाए। लल्ली प्रसाद पांडेय ने ‘बालसखा’ पत्रिका के जनवरी 1917 के अंक में लिखा था- ‘‘बालसाहित्य का उद्देश्य है बालक, बालिकाओं में रुचि लाना, उनमें उच्च भावनाओं को भरना और दुर्गणों को निकाल कर बाहर करना, उनका जीवन सुखमय बनाना और उनमें हर तरह का सुधार करना।’’5 कविता के रूप में घटनाओं या पात्रों के माध्यम से कही गई वही बातें बच्चों को भाती हैं तथा बलमन पर सीधा असर करती हैं। महान कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं- ‘‘बालक तो स्वयं एक काव्य है, स्वयं ही साहित्य है।’’6 वीर शिवाजी को इनकी माताजी द्वारा सुनाई गई वीर रस की कहानियों ने ही इतना वीर योद्धा बनाया। राष्ट्रभक्ति की कविताएं, गीत पढ़कर, कितने युवा देश के लिए शहीद हो गये ? प्रभावकारी साहित्य को पढ़कर बालक, भावी जीवन जीने की कला, युक्ति, अनुभव ग्रहण करता है।
जिस प्रकार एक बालक समाज के निर्माण का बीज रूप होता है, उसी प्रकार बालसाहित्य भी बालकों को संस्कार एवं दिशा प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह बालकों की प्रारिम्भक अवस्था से ही उनके मन, विचार और कल्पना को परिमार्जित करते हुए समाज एवं राष्ट्र के भावी स्वरूप की पृष्ठभूमि तैयार करता है। आज हमारे बच्चों का जीवन इंटरनेट, मोबाइल ने छीन लिया है। वे किताबों से दूर होते जा रहे हैं। उनकी रूचि पुस्तकों के प्रति घट रही है, वहीं सीरियल, गेम, इंटरनेट उनको अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। यह हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है। ऐसे में बालसाहित्यकारों का दायित्त्व बन जाता है कि बच्चों के लिए कुछ हटकर सोचें, ऐसी रचना करें, जिससे बच्चे पत्र-पत्रिकाओं की ओर आकर्षित हों। बच्चे समृद्धशाली देश की पहचान होते हैं। बच्चे हैं तो कल है, बिना बच्चों के घर सूना-सूना लगता है। भावी पीढ़ी के चरित्र-निर्माण में बालसाहित्य की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
समाज के नैतिक-मूल्यों में गिरावट आने के कारण इससे सीधे तौर पर बच्चे प्रभावित हुए हैं, जिससे कभी-कभी उनके व्यवहार में असामान्यता दिखाई देती है। जैसे बड़ों की आज्ञा न मानना, बात-बात पर गुस्सा करना आदि। बच्चों का पालन-पोषण ऐसे माहौल में हो रहा हैं, जो उनके अनुकूल नहीं है। वे अत्याधुनिक साधनों के आने से तेजी के साथ असामान्य रूप से परिपक्व होते जा रहे हैं। आज के बच्चे पढ़ते नहीं हैं तो कहीं न कहीं हम नहीं पढ़ते। नए और पुराने के बीच सोच का अंतर होता ही है। लगातार अध्ययन-अध्यापन की आदत में कमी आती जा रही है। बालसाहित्य को लिखने वाले बड़े लोग ही होते हैं और उसे बाजार से खरीदकर बच्चों के हाथों तक पहुँचाने वाले भी बड़े ही होते हैं। बच्चे साहित्य सृजन की क्षमता में अक्षम होते हैं, वहीं दूसरी तरफ उनमें साहित्य की कोई ऐसी समझ और रुचि नहीं होती जिससे वह बाजार से स्वरुचि कर पुस्तकें खरीदें। ऐसे में अभिभावकगण भिन्न-भिन्न उपायों से बच्चों के कोमल हृदय पर अपनी रुचि और पसंद लादने का प्रयत्न करते हैं। यह बहुत बड़ा अपराध है। जार्ज बर्नाड शॉ का कथन है कि ‘‘जो व्यक्ति बच्चों के स्वाभाविक चरित्र को मोड़ देने का प्रयत्न करते हैं, वह संसार का सबसे बड़ा गर्भ गिरा देने वाला होता है।’’7 आज तो हर कोई अधिक पढ़ने लगा है, यह और बात है कि पढ़ने की विधि गूगल है, मोबाइल है, नेट है। किताब के तौर पर पढ़ना कम हुआ है लेकिन नए साधनों ने पढ़ने के कई विकल्प भी दिए हैं।
संयुक्त परिवारों के विघटन और एकल परिवारों की समस्याओं ने बालमन की स्भाविकता को छीन गहरी अशोक्ति में डाला है। उपभोक्तावाद ने बच्चों के कोमल मन पर प्रत्यक्ष असर डाला है। आज की स्कूली व्यवस्था ने बच्चों के बचपन का समय कम कर दिया है। बाजार में परोसी गई चीजों ने मल्टीनेशनल कंपनियों के सामने बच्चों का बाजार खोल दिया है। कार्टूनों ने भी बच्चों के समक्ष एक नई दुनिया खोल दी है। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों की दुनिया में आज भी आम मूलभूत चीजें मयस्सर नहीं है। बच्चों पर काम का बोझ आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में दिखाई पड़ता है। बच्चों की बेहतर दुनिया के निर्माण में बालसाहित्य ही उम्मीद की किरण है। बालसाहित्य के नाम पर जो कुछ छप रहा है उसमें मौलिकता और सार्थकता का अभाव है। माता-पिता, अध्यापक, स्कूल हिंदी किताबों-पत्रिकाओं की जगह अंग्रेजी किताबें पत्रिकाएं खरीदने पढ़ने पर जोर देते हैं। बच्चों में पढ़ने और खेलने की आदत कम हो रही है, महानगरीय स्कूलों में खेलने का स्थान नहीं है, बच्चे टी. वी., कंप्यूटर से चिपके रहते हैं, इससे उनमें वे तमाम रोग पैदा हो रहे हैं, जो बड़ों की बीमारियां माने जाते हैं। वे मोटापे के शिकार हो रहे हैं। जब बच्चे बालसाहित्य को पढ़ते नहीं तो हम किस साहित्य और चुनौती की बात कर रहे हैं ? यही नहीं बच्चों की दुनिया में जो देखा गया है यही सच है। रामायण, महाभारत के गणेश, हनुमान सब उनके लिए टी. वी. के पात्र हैं। इनसे संबंधित कोई पुस्तकें भी हैं ? बच्चे बहुत कम बताएँगे ? अभिभावक बच्चों से बहुत अधिक अपेक्षाएं रखते हैं जबकि वे बच्चों को समय नहीं दे पाते। बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की चिंता में बचपन खोता जा रहा है। हम बच्चे को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं देते, उनके अधिकारों और इच्छाओं की परवाह नहीं करते। बालमन बहुत चंचल होता है, उसे बदलाव चाहिए, नयापन चाहिए। बच्चों के मनोरंजन और मानसिक विकास के लिए ऐसे बालसाहित्य की आवश्यकता है जो बाल-मनोविज्ञान के आधार पर सृजित हो, जो उन्हें यथार्थ से, वास्तविकता से अवगत कराए।
आज के परिदृश्य में साहित्यिक सेमीनार और संगोष्ठियों में बालसाहित्य और समस्याओं पर निरंतर परिचर्चा की आवश्यकता है। ऑडियो-वीडियो, इंटरनेट, डिजीटल और ई-पुस्तकों के माध्यम से भी बच्चों तक काफी रचनात्मक समाग्री पहुँचाई जा सकती है। आपने कोई फिल्म, खबर, विज्ञापन या कार्यक्रम ऐसा देखा है जिसमें कोई बच्चा माता-पिता से किसी किताब की फरमाइश कर रहा हो, शायद नहीं। लेकिन आजकल ऐसे आर्टिकल बार-बार देखने को मिलते हैं जिनमें बताया जाता है कि बच्चे माता-पिता की खरीददारी की च्वाइस को डिक्टेट कर रहे हैं। वे कार खरीदने से लेकर, घर, कपड़ों, मोबाइल, जूतों का ब्रांड तय कर रहे हैं। ब्रिटेन में, अमरीका में चार साल की बच्चियां डायटिंग कर रही हैं। रियलिटी शोज की तरह बात करना सीख रही हैं। इन बातों से बच्चों की मासूमियत खत्म हो रही है। कारपोरेट और मीडिया इसे ‘ग्रोथ’ बता रहा है। वह बच्चे की जिद को एक पॉजीटिव वैल्यू में बदल रहा है। क्या सचमुच इसे कहते हैं ग्रोथ ? यदि आप मीडिया में छपने वाली सक्सेस स्टोरीज पर नजर डालें तो ऐसा लगता है कि जो सफल है बस वही जीने लायक है, वही दिखाने लायक है। उसी की खबर बन सकती है, अगर आप इनके खिलाफ लिखते हैं, इन पर सवाल उठाते है, तो पिछड़े और रूढ़िवादी कहलाते हैं। अगर आप नहीं लिखते तो निश्चय ही आपकी कहानी-कविताओं को कोई नहीं पढ़ने वाला। हम लेखक इस भ्रम में जरूर रह सकते हैं कि हमने तो बच्चों की दुनिया बदल दी और हमारी किताबों के तो कई-कई संस्करण निकल चुके हैं, कई भाषाओं में अनुवाद हो गए। ये पुरस्कार और वो पुरस्कार, सारे मिल गए ?
मध्यवर्ग अपने बच्चों की ख़्वाहिशों पर इतरा रहा है। माता-पिता अपने बच्चों के बारे में काफी इतराकर बताते है कि उनका बच्चा तो सिफ ब्रांड मांगता है और वह भी मंहगी से मंहगी। सूचना के एक्सप्लोजन ने बच्चों को और अधिक लालची और पेटू बना दिया है। कहते हैं न कि ‘ओल्ड हैबिट्स डाई हार्ड’। अगर बच्चा बचपन से ही किसी ब्रांड को पसंद करने लगे तो कम से कम पचास साल तक कंपनी को अपना एक उपभोक्ता और उसके बदले में मिलने वाला मुनाफा पक्का हो गया। जिन बच्चों के पास साधन हैं, उनकी तमन्नाएं तो पूरी हो जाती हैं लेकिन जिनकी नहीं हो पातीं वे अधिकतर अपराध के चंगुल में फंस जाते हैं और कई बार उससे बाहर नहीं निकल पाते। हर बच्चे में आगे बढ़ने की नहीं, दूसरे को पछाड़ने की होड़ लगी है। दूसरों को पछाड़ने में हिंसा भी एक विकल्प के तौर पर उभरती है। चोरी-चकारी, झपटमारी उसके औजार बनते हैं। थोड़े दिन पहले ही एक रिपोर्ट में बताया गया था कि बच्चे अपराध की दुनिया में बड़ी संख्या में जा रहे हैं। ‘‘जिन देशों के बच्चों के लिए बड़े लोकतांत्रिक नियम-कायदे विकसित किए थे, वे ही खासतौर से ब्रिटेन, वहाँ कहा जा रहा है कि हमारे यहाँ बच्चों को बहुत आजादी है। उन्हें सजा नहीं मिलती, इसलिए वे बहुत बिगड़ गए हैं। इसलिए बच्चों को कॉरपोरल पनिशमेंट दिया जाना चाहिए। सोचिए कि इस दौर में वहाँ बच्चों को छड़ी दिखाने की परंपरा की वापसी की मांग की जा रही है।’’8
अक्सर जब हम हिंदी बालसाहित्य की बात करते हैं तो हमारे जेहन में प्रिंट मीडिया रहता है। किताबों के बिकने और छपने की बातें रहती हैं। मगर चुनौतियां सिर्फ प्रिंट मीडिया तक ही सीमित नहीं हैं। आज बच्चों में सबसे अधिक लोकप्रिय कार्टून चैनल्स हैं। बच्चे इन्हें देखना बहुत पसंद करते हैं। आखिर वे ऐसा क्यों करते है ? वे कार्टून्स तक की हर सीमा तक से परे तथा रियलिटी और फेंटेसी के अनोखे मिक्सचर होते हैं जबकि हमारे यहाँ अब भी बहुत से लोग फेंटेसी मात्र से नाक-भौं सिकोड़ते हैं। वे वैज्ञानिक विकास की छड़ी लिए फिरते हैं। कार्टून्स एनीमेशन से बनते हैं। टी. वी., कंप्यूटर, सीडी, डीवीडी, पेनड्राइव या सिनेमा हाल्स में देखे जाते हैं। ये सब उच्च तकनीक का परिणाम है। तकनीक वैज्ञानिक विकास का ही हिस्सा है। दूसरी तरफ एक बात यह भी सुनाई देती है कि हिंदी में कोई किताब हैरी पॉटर की तरह लोकप्रिय क्यों नहीं होती। सचाई यह ही तो है कि हैरी पॉटर की जो हार्स मार्केटिंग की गई, इंफोटेनमेंट के तमाम माध्यमों ने उसे घर-घर तक पहुँचाया, क्या आज तक भारत में बच्चों की तो क्या बड़ों की भी किसी किताब के साथ ऐसा हुआ है ?
बच्चों की किताबों के प्रति तो वैसे ही उदासीनता बिखरी पड़ी है। हर रोज चुनौतियां बढ़ रही हैं। सवाल तो यही है कि उनसे कैसे निपटा जाए ? तो सवाल शायद यही है कि क्या हमारा बालसाहित्य इन चुनौतियों से निपटने को तैयार है ? क्या लेखक इस बच्चे को संबोधित कर रहे हैं ? वह बच्चा और उसके माता-पिता आज की चुनौतियों को बच्चे की खूबी की तरह देख रहे हैं ? एक तरफ उन कविता-कहानियों से बचना है जो बच्चे को मार-मारकर उपदेश की घुट्टी पिलाते हों, तो दूसरी तरफ उस बच्चे को देखना है जिसकी हर इच्छा पूरी हो रही है, मगर वह खुश नहीं है। बालसाहित्यकारों के सामने यह चुनौती है कि बालसाहित्य के प्रति रूचि कैसे पैदा करें ? उसका सामना एक खतरनाक वैश्विक बाजारवाद से है, जिसके पास अकूत पैसे की ताकत है जो बच्चों से बचपन छीनना व अपनी विचारधारा थोपना अच्छी तरह से जानता है ओर इसमें वह सफल भी हो रहा है। ये सारा परिदृश्य बेहद निराशाजनक है, मगर हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाने से स्थितियां और गंभीर हो सकती हैं। जो लोग साहित्य से जुड़े हैं उनको ही इसकी चिंता करनी होगी क्योंकि ऐसे ही लोग साहित्य को बचा सकते हैं। यदि हमने बच्चों के विकास और खुशहाली के प्रति तत्काल कदम न उठाए तो इसका सिला हमें भुगतना पड़ेगा क्योंकि आने वाला समय चुनौतियों से भरपूर है। इन चुनौतियों का मुकाबला हम बच्चों के लिए अच्छा बाल-मनोवैज्ञानिक साहित्य रचकर, उनकी मानसिक दुविधाओं हल ढूँढकर ही कर सकते हैं। जब बच्चों की मानसिक भूख के अनुसार उन्हें भोजन मिले और उनकी संवेदनशीलता के अनुसार पठन-सामग्री हो तो यह बच्चों के हित में होगा और ऐसा करके हम भावी पीढ़ी के प्रति अपना कर्त्तव्य निभा रहे होंगे। बालसाहित्य के ममर्ज्ञ विद्वान डॉ. हरिकृष्ण देवसरे के शब्दों में ‘‘यह तभी संभव है जब परिवार में मुक्त वातावरण हो और बच्चों की बात सुनी जाए। भविष्य का समाज जैसा होगा, उसके अनुरूप बच्चों को तैयार करना ही हमारा दायित्त्व है और यह दायित्त्व बच्चों की दुनिया से जुड़े लोगों और बालसाहित्य लेखकों को पूरा करना है, क्योंकि उन्हें इस विचार को जगाना है, जो नई पीढ़ी को, नई शताब्दी के लिए तैयार कर सकेंगे।’’9

संदर्भ ग्रथ
1- बालसाहित्य की रूपरेखा : द्वारिकाप्रसाद महेश्वरी, पृ. 11
2- विनोदचन्द्र पांडेय ‘विनोद’, हिंदी बालकाव्य के विविध पक्ष, हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर, प्रथम संस्करण 2010, पृ. 9
3- बालगीत साहित्य : निरंकारदेव सेवक, प्रस्तावना भाग से
4- अखिलेश श्रीवास्तव चमन, ऐसा हो बच्चों का साहित्य, संपादक- फ़रहत परव़ीन, आजकल पत्रिका, नवंबर 2014,
प्रकाशन विभाग, सूचना भवन, नई दिल्ली, पृष्ठ 12
5- वही, पृष्ठ 12
6- वही, पृष्ठ 15
7- बालगीत साहित्य : निरंकारदेव सेवक, प्रस्तावना भाग से
8- बालसाहित्य की चुनौतियां, क्षमा शर्मा, आजकल, नवंबर 2012, पृ. 20,
9- आज के परिवारों में बालक, डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, ज्ञान-विज्ञान बुलेटिन, पृ. 30

©

संपर्क -: उमेशचन्द्र सिरसवारी
पिता : श्री प्रेमपाल सिंह पाल

ग्रा. आटा, पो. मौलागढ़, तह. चन्दौसी,
जि. सम्भल, उ.प्र.- 244412
ईमेल- umeshchandra.261@gmail.com

09720899620, 09410852655

Language: Hindi
Tag: लेख
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