बागी
इतने सुन सुन सितमगर,
इस जहां की हर दास्तां,
दोस्त गर सच सच कहूं तो,
दिल ये बागी सा हो गया।
हम न निकले थे कभी भी,
कालिख भरे हुए रास्तों से,
फिर भी न जाने कैसे मेरा,
दामन दागी सा हो गया।।
सादगी से हम जो थे जिते,
उन्हें सादगी समझ आया नही,
इस भ्रमर की आजाद नृत्यन,
का सुर राग तनिक भाया नही।
मेरी तो हर अठखेलियाँ,
उनको लगा छिछोरापन,
कैसे पारखी नजरो में उनके,
वो आवारगी सा हो गया।।
जो जानते तो थे मुझे,
पहचान तक पाए नही,
आदर सूचक बोल से,
सम्मान तक पाए नही।
भाव के जो खुद थे इच्छुक
वो मनुहार तक समझे नही
लब पर मेरी ये खामोशियाँ
बड़ा बेचारगी सा हो गया।।
हमदर्द वो मेरे पथप्रदर्शक,
है इल्म मुझे इस बात का,
पर पथ दिखाने को कभी,
उंगली उठा नही हाथ का।
क्यों जान न पाया कभी,
सजिन्दगी से भी मैं उन्हें ,
कौतूहल उठे मन मे उनके,
जरा नाराजगी सा हो गया।।
कर क्षमा मैं मन्दबुद्धि,
कौशल तेरे हर बात में,
प्रेम तेरा न हमको दिखा,
बसा रोम रोम तेरे गात में।
है चाह इतनी सी रही कि,
न अब भूल से भी भूल हो,
आज देख कर तुझे “चिद्रूप”
कर अदायगी सा हो गया।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित २९/०६/२०१९ )