बहू बनी बेटी
बहू बनी बेटी
“बेटा, यदि सारा खाना लग गया हो, तो यहां तुम भी अपनी प्लेट लगा लो।” रमा बोली।
“पर मां जी, मैं यूं… आप लोगों के साथ…?” हिचकते हुए सुषमा बोली।
“क्यों ? क्या हो गया ? क्या मायके में अपने मम्मी-पापा और भैया के साथ खाना खाने नहीं बैठती थी ?” रमा ने आश्चर्य से पूछा।
“जी… बैठती तो थी।” सुषमा बोली।
“तो फिर यहां क्या दिक्कत है बेटा ? इस परिवार की परंपरा है कि हम दिन में भले ही अलग-अलग समय पर नास्ता और खाना खाएं, पर रात का खाना सभी एक साथ बैठकर खाते हैं। मैं भी शादी के बाद जब यहां आई, तो अपने सास-ससुर और जेठ-जेठानी और बच्चों के साथ ही डिनर करती थी।” रमा बोली। सासु माँ ने प्यार से समझाते हुए कहा।
“ठीक है माँ जी। मैं अभी आई पानी का जग लेकर।” सुषमा मुस्कुराते हुए बोली ।
सुषमा सोच रही थी कि कुछ किताबों में पढ़ और सहेलियों से सुनकर वह सास-ससुर के बारे में किस प्रकार पूर्वाग्रह से ग्रसित हो चिंतित थी।
उसने नजर उठाकर देखा, तो सास-ससुर में उसे अपने मम्मी-पापा की ही छबि नजर आई ।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़