बहर के परे
सादर नमन🙏💐 प्रस्तुत हैं स्वरचित और मौलिक कविता जिसका शीर्षक है “बहर के परे ” ग़ज़ल में बहर का होना पारंपरिक शायर आवश्यक मानते हैं |बहर यानि की वह लय या माप जिसमें ग़ज़ल लिखी जाती है|लेकिन मेरे जैसे कुछ नये लेखक ग़ज़ल को बहर में लिखते वक्त अपने भावों के साथ समझौता नहीं करना चाहते |अपने भावों को ज्यों का त्यों लिख देना चाहते है उसी के लिये बंधन मुक्त होना चाहते है|बहर हम जैसों को आजादी प्रदान नहीं करती और हम ये बेड़िया तोड़कर ग़ज़ल में नवाचार करना चाहते है| इसी अंतरद्वन्द्व को दर्शाती मेरी यह कविता है|समीक्षा हेतु प्रेषित |
” बहर के परे ”
मैं नहीं सिमटाना चाहता
मेरी ग़ज़लों को बहर के दायरे में
क्यों समझौता करूँ मैं भावों से,
मेरे लफ़्ज़ हैं आज़ाद,
मैं जैसा हूँ, वो बयान करना चाहता हूँ। बहर के परे, एक ग़ज़ल का गाँव बसाना चाहता हूँ,
जहाँ मिसरों की पगडंडी हो,
हर शेर में बसी हो एक नयी दुनिया,
बिन बहर के खयालातों का समंदर हो,
और हर लहर में मिले रूह की आज़ादी।
कभी-कभी एक शेर, बस एक साँस की तरह हो,
तो कभी एक मिसरा, पूरी कहानी कह दे,
मैं नहीं चाहता ग़ज़लें बांधी जाएँ
किसी तयशुदा कड़ी में,
मैं चाहता हूँ, वो बहें,
जैसे बहती है नदी,
अपने रास्ते खुद बना लेती है।
मेरा सफर मिसरों की पगडंडी पर होगा,
जहाँ हर कदम पर नए अल्फ़ाज़ खिलेंगे,
और हर मोड़ पर मिलेगा
एक नया एहसास, एक नई दुनिया।
मैं बसाना चाहता हूँ
बहर के परे एक ग़ज़ल का गाँव,
जहाँ हर दिल की धड़कन हो एक लय,
और हर साँस में हो एक ग़ज़ल की नयी बयानी।
©ठाकुर प्रतापसिंह “राणाजी ”
सनावद ( मध्यप्रदेश )