बहकते कदम
अंगुलियां थम गई
जब देखी एक प्रोफाइल
हो गई धुँधली याद फिर ताजा
देख उसका सालों बाद छायाचित्र में
सुंदर मनोरम हसीन मुखड़ा
जो था कायनात पर चाँद का टुकड़ा
कुछ भी नहीं बदला था
वही चमक,दमक,आभा,अदा
मुस्कराहट,दिल की आहट
उधेड़बुन में हो गई स्वीकार्य
सोशल मीडिया पर मित्र प्रार्थना
हो गया शुरु फिर वही दौर
अधेड़ उम्र के उस मोड़ पर
जहाँ खुद के बच्चे करते हैं वो
गलतियाँ नासमझी में
यौवन के असरदार प्रभाव में
पर हम तो परिपक्व पके आम से
होकर भी समझी में नासमझी कर
बढ रहे थे उस पथ पर बन पथिक
उद्देश्यहीन,भयभीत,सहमे से
उस अनचाहे अंजाम के डर से
जहाँ ना कोई मंजिल है ना राह
बस पुरानी कहानियों को
ताजा और जीवंत करने की चाह
हो रहे थे पुनः मशगूल
अधूरे रहे स्वप्नों को पूर्ण करने
शायद वर्तमान को भूतकालीन
तीर से घायल करने और
बचे खुचे भविष्य का गर्भपात करने
ना चाहते हुए भी बढ रहें हैं कदम
बहकते भटकते राह अपनी
बिना आराम के होकर गतिशील
एक भटकी हुई दिशा में होकर दिशाहीन
जहाँ बिगड़ जाएगी पूर्ण दशा
उस क्षितिज तक जहाँ पर
ना पहुँच पाए घनी तमस में रवि
जहाँ बन जाए मैं वह -हम
थम जाएं चलती सांसे
हो जाए समय स्थिर और फिर
वापिस लौट आएं कर वतन वापिसी
अपने अपने नीड़ में जीने के लिए
वही नीरस,कुंठित और विरान शेष जीवन
सुखविंद्र सिंह मनसीरत