बस सरकारी
***** बस सरकारी *****
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सरकारी बस की सवारी,
कभी नहीं मिलती उधारी।
खाली कंडक्टर का झोला,
चालक बजाता है थाली।
खिड़की पर लटकते रहते,
सीट को तरसती सवारी।
बस की बस सी हो गई है,
कूच करने की तैयारी।
वो दिन भी बहुत हसीन थे,
खूब भर भर चलती लारी।
हालत खस्ते से भी खस्ता,
जब से गले पड़े व्यापारी।
लूट कर खा गए सन्तरी,
सरकार दिखाए लाचारी,
बन गया घाटे का सौदा,
कभी बहुत था लाभकारी।
महिलाओं को मुफ्त यात्रा,
है योजना कल्याणकारी।
कभी तो होगा बेड़ापार,
प्रतीक्षा में जनता सारी।
मनसीरत है वाहन मालिक,
क्या बस करेगी सरकारी।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)