बस पिता ही कह दो
सीने में सैलाब लिए आंखों में आसमान लिए,
वो फिरता है किसी के गुलिस्तान के लिए।
छुपा के लाख गम हमें हँसाता है,
नस्तर लाख चुभे हो पांव में पर भोजन भरपेट खिलाता है।
हमारे मकसद में ही शामिल रहता है मकसद उसका,
ये राज है स्वप्न-ऐ-ख्वाहिश
ये एहसास भी कहां कराता है।
जो अपने मुकद्दर को भी मिला दे संतान के मुकद्दर में ,
वो रूप है भगवान का जो खुद को आम बताता है।
तारीफ नही कुछ भी उस इंसान की,
संघर्षों की अनवरत दास्तान है ये,
बस पिता ही कह दो,
वो इंसान मुकम्मल हो जाता है।
कुमार दीपक “मणि”
(स्वरचित)