बस पत्थर को भगवान!
औरत से जन्म लेकर, फिर औरत में समा जाता है। राहें बना कर नई नई, फिर मंजिल पाता है। कुछ इधर की कुछ उधर की, पढ़ता और पढ़ाता है। कुछ ही समय में,इस भीड़ में गुम हो जाता है।न खुद को पढ़ा,न औरत को पढ़ा, फिर भी ज्ञानी बन जाता है।समय बीतने के बाद,अब? क्या करना चाहता है। मौका हाथ से छोड़ कर, पछताना चाहता है।मानव की जिंदगी का सार ,आज तक जान न पाया है।पर! जिंदगी जीने की कला को, बनाता आया है।समय चूक हम चूक नही,बस! यह बात दोहराता आया है। बस! पत्थर को, भगवान बनाता आया है!