बस एक औसत औरत हूं मैं
यूं ही नहीं हर मोड़ पर हूं मुस्कुराती मैं
दर्द की मार से खुद को बनाती हूं मैं
जब ठहर जाता मेरा सारा जहां
वहां नदिया से हौसले बहाती हूं मैं
स्त्री हूं रो कर रुक भी सकती हूं
दिशा विहीन चल सकती हूं
किन्तु अचल अडिग स्थिति के विपरीत
पर्वत सी खड़ी होती हूं मैं
मैं और मुस्कान ओढ़ लेती हूं अधरो पर
रंग लेती हूं होंठ और लाली से गाल
छिपा कर तुम्हारा दुराचार
तितली सी मुस्कुराती हूं मैं
गर्भ में पालती हूं नौ माह
जरूरत हो तो पत्थर भी उठाती हूं मैं
कोमल हृदय सेवाभाव से ओतप्रोत
गुलाब सी खुशबू फैलाती हूं मैं
दौड़ती भागती हर हाल में मुस्कुराती
आसमां छूने की चाह रखती हूं मैं
जरूरत उनकी तो चांद नज़र आती
नहीं तो बस एक औसत औरत हूं मै
Anjali A
दिल्ली रोहिणी