बसेरा उठाते हैं।
बसेरा उठाते हैं
बहुत हुआ अब
बहुत हुआ सुन
कदम बढ़ाते हैं।
इस शहर से ऐ मुसाफिर
अब बसेरा उठाते हैं।
सोचा था मिलेगा
सुकून यहां पर।
मगर मिट गया है
जुनून यहां पर।
किस पेड़ की छाया में
जाकर हम सोये।
खुशी पाने की कोशिश में
है कितना रोये।
मन के कबूतर को
मुसाफिर
गांव की ओर उड़ाते हैं।
इस शहर से ऐ मुसाफिर
अब बसेरा उठाते हैं।
सबने लूटा सबने बांटा
मनमर्जी से
हर तरह से काटा
हम अज्ञानी बात न समझे
उन खरिददारों की।
झूठी निकली है
मुसाफिर
रौनक इन बाजारों की।
कितना मुश्किल है निकलना
नकली चमक में
जो खो जाते हैं।
इस शहर से ऐ मुसाफिर
अब बसेरा उठाते हैं।
कौन करेगा अब
याद यहां पर।
सबने किया है जब
बर्बाद यहां पर।
यकीं के बादल मिट गए
और किसी से आश नहीं।
समुद्र है फैला मेरे सामने
कैसे कहूं कि प्यास नहीं।
आंखों से गिरा के मोती
मुसाफिर प्यास बुझाते हैं
इस शहर से ऐ मुसाफिर
अब बसेरा उठाते हैं।
हर शख्स के
हजार चेहरे हैं।
तेरे दिल पर उनके
ज़ख्म गहरे हैं।
एक मुखोटा उतारें तो
दूजा लग जाता है।
इंसान नाम ये जीव तो
कई रंग दिखाता है।
छोड़ के दुनियादारी
मुसाफिर
दरिया-तट तंबू लगाते हैं।
इस शहर से ऐ मुसाफिर
अब बसेरा उठाते हैं।।