“बसन्त-विकास”
बसन्त-ऋतु चलती आई,
कोने-कोने हरियाली छाई।
पौधे लगते हैं कितने सुन्दर,
बाहर देखो या घर के अन्दर।।
हल्की-मिठी धीमी-गति से,
पुरवाई चल जाती है।
लहराती देख फ़सलों को,
कृषक के मन को हरषाती है।।
लहराती है हरियाली,
छोटे-बड़े मैदानों में।
उमंग सी भरती है,
हर एक के जीवन में।।
इधर-उधर फुदक-फुदक कर,
सबके हिय में भरती प्रीत।
इस ऋतु के पावन अवसर पर,
अपनी सुन्दर वाणी से गाती हैं गीत।।
रंग-विरंगी तितली,
फूलों पर मंडराती है।
कभी कुमुदिनी कभी चाँदनी,
वो बारी बारी जाती है।।
मोर नाचते हैं बागों में,
कोयल गीत सुनाती है।
मन को ऋतु आकर्षित करने,
हर वर्ष ये आती रहती है।।
#_विकास_गुप्ता_#…