बसंत
बसंत
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स्वागत बसंत रितुराज तेरे स्वागत कूँ
मस्त है मयूर नैहू पाँख फरकायो है ।
भीनी गंध सरसों की ब्यार महकाय रही,
फूलन पै जोबन कौ रंग गदरायौ है ।।
पीरी ओढ़ चुनरी अवनि इतराय रही
अंबर में ओटक ते चंद्र मुस्कायौ है ।
ज्योति पात लाल-लाल डारन उगन लागे
जैसै रे बसंत नै गुलाल बरसायौ है ।।
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आयो रे बसंत भयौ सीत कौ सुखद अंत,
बिखरीं सुगँध रंग बिखरे दिगंत रे ।
अँगना अनंग फिरै अगन लगाय अंग,
बींधत है काम बान तान कै अनंत रे ।।
ब्यार सरसाय हिया टेरत है पिया- पिया,
बैरी सम लागै है मयंक बिनु कंत रे ।
ज्योति कहै रितुराजा रंग बरसाय रह्यौ,
सोर चहुँ ओर मचौ आयौ है बसंत रे ।।
०००
बावरे बसंत काहे आय ना मजूर द्वार ,
पीरे पेवरी से मुख चढो तेरौ रंग रे ।
तोय तौ सुहावत है पीरौ रंग चहुँ ओर ,
काहे तोय भाय नाँय पीरे परे अंग रे ।।
नीके तोय लागैं ढप ,ढोल, झाँझ, बाँसरिया ,
काहे ना सुहाय तोय आह की मृदंग रे ।
‘ज्योति’ कहै कबहु तौ उनकी हू गैल झाँक,
जूझ-जूझ जीतत जो जीवन की जंग रे ।।
०००
ऐ रे रितुराज ! ऐसौ रंग तौ परस आज ,
चूनरी रँगाय हरषाय हर गोरी रे ।
ऐसी रे बहार चहुँ ओर छाय देस माँहि ,
भारती के लालन के भाल चढै रोरी रे ।।
द्वेष भूल भेद भाव त्याग सब नेह करैं ,
मुख ना चिढाय बैर भावना निगोरी रे ।
ज्योति हर घर द्वार अँगना फुहार झरैं ,
पोट भर प्रेम रँग बरसाय होरी रे ।।
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-महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
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