बसंत मेरे हिस्से का
बसंत बस अब
अंत कर दो।
झर रहे सब पात का,
हो रहे उत्पात का,
मन के हर आघात का।
है सुना सबसे ही मैंने
और खुद जाना भी है
चेतना तुम में बहुत है
सृष्टि में संचार की।
दो मुझे भी ये कुशलता
निज में इस व्यवहार की।
भर दो मन में भावना
स्वप्नों का नव अंकुरण,
अनिष्टता का संवरण,
फिर नए उत्साह की।
पा तुम्हें जो प्रकृति
ये चेतन हुई सब ।
जीवनी इतनी कहां से
ला रहे तुम ?
शीत से जो झर रही
सब पौध को,
देे रहे नव
गात का उपहार तुम।
आनन्द तुम लुटा रहे
जन मन सभी हरषा रहे
किन्तु मेरे हिस्से में
ये जीवनी क्यों आ न पाई ?
ईश का आदेश ये
या है तुम्हारी ही ढिठाई।
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