बलि और वामन, राधे श्यामी छंद
बलि और वामन
राधे श्यामी छंद
मत्त सवैया 16/16=32
अंत गुरू, लघु भी मान्य
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भगवान स्वयं वामन बनकर
नृप बलि के द्वार पधारे हैं।
हो रहा जहाॅं पर यज्ञ बड़ा,
ऋषियों ने वेद उचारे हैं।
चरणों में शीश झुका राजन,
बोले आशीष हमें दीजे ।
हाथी तुरंग या धेनु धरा ,
मन चाहा दान विप्र लीजे।
देते आशीष कहा वामन,
हे बलि राजा तुम हो महान।
मैं नहीं मांगने आया हूं,
फिर भी मुझको दे रहे दान।
जो विप्रों को मनचाहा दे,
वह दानवीर कहलाता है।
धरती पर सदियों सदियों तक,
उसका यश गाया जाता है।
यह लोक और पर लोक बने
बस इसकी आवश्यकता है।
तन नाशवान,मर सकता है
पर नाम नहीं मर सकता है।
हे विप्र आप तन से वामन,
मन से तो मुझे विराट लगे ,
जो कहा दान की महिमा में,
हर शब्द धर्म के घाट लगे ।
आ गया पुण्य सलिला तट पर,
तो डुबकी अभी लगाऊॅंगा।
जो नहीं अभी तक नाम हुआ,
मैं वैसा नाम कमाऊॅंगा।
वैसे तो विप्र समाज यहाॅं,
पहले से हुआ इकट्ठा है।
सब तेजवान,सब ज्ञानवान,
सब मक्खन कोई न मठ्ठा है।
पर सबसे ज्यादा तेज मुझे,
दिख रहा आपमें विप्र श्रेष्ठ।
अनुपम छवि, सागर से गहरे
वाणी बोले हितकर यथेष्ट।
बस दान आपको देने का ,
संकल्प हृदय में आया है।
लगता है परम ब्रह्म ने ही,
यह रूप विप्र का पाया है।
मैं नहीं दान लेने आया,
मेरे मन में कुछ लोभ नहीं,
हो अमर नाम जग में राजन,
ना मानों तो भी छोभ नहीं ।
ब्राम्हण करता कल्याण सदा,
यजमान फूल सा खिल जाये,
देता अशीष संतोष लिये,
जो दान सहज में मिल जाये।
हो यज्ञ सफल, हो पुण्य लाभ,
आशीष यही करते प्रदान।
जिजमान महान तुम्हीं जग में,
कुछ मुझे चाहिए नहीं दान।
बिन दान महान बनाते हो,
मेरा उपहास जहान करे ।
हे विप्र असंभव है ऐसा,
मन भीतर करता अरे अरे।
इसलिए दान लेना होगा,
मन निश्चय को दुहरायेगा।
जो विप्र बली के द्वार गया,
वह खाली हाथ न जायेगा।
संवाद यही करते करते
वामन मन ही मन मुसकाये।
तब अकस्मात ही सभा बीच,
गुरु शुक्राचार्य वहां आये।
वामन पर नजरें पड़ते ही,
बोले हो सावधान राजन।
यह विप्र नहीं यह छलिया है,
कर देगा तुमको छल भाजन।
इसकी बातों में मत आना,
यह स्वार्थ सिद्ध कर भग लेगा।
कुछ भी न देना दान इसे,
यह दान दान में ठग लेगा।
पहचान नहीं सकता कोई,
ठगने में इसे महारत है।
बलि सोचे जलते आपस में,
यह ब्राम्हणों की आदत है।
गुरु फिर बोले सबको देना,
मांगें उससे ज्यादा देना।
पर इस वामन से सावधान,
इसको विप्रों में मत लेना।
है माथे पर त्रिपुण्ड लगा,
धारण पावन यज्ञोपवीत।
गायत्री मंत्र शुद्ध बोले,
जाने भविष्य जाने अतीत ।
सब ब्राम्हणों के लक्षण हैं,
सौ प्रतिशत सोना खरा खरा।
है ज्ञान हिमालय से ऊॅंचा,
बस कद छोटा रह गया जरा।
तन का क्या है, दुबला पतला,
गोरा काला हो सकता है।
कद लंबा हो या नाटा हो
कोई महत्व ना रखता है।
गुण की कीमत है दुनियाॅं में,
गुणवान सराहे जाते हैं।
तन कैसा भी हो दिखने में,
गुण ही तो चाहे जाते हैं।
गुरुवर जो मुझसे बता रहे,
वह बात कहीं से जमी नहीं।
यह विप्र श्रेष्ठ है साफ साफ,
वामन में कोई कमी नहीं ।
मांगों मांगो हे विप्र देव,
बोले वामन से बलीराज ।
मनवांछित दान तुम्हें देकर,
मैं करूं यज्ञ का सफल काज।
वामन बोले संकल्प करो,
जो मांगूं उसे करो पूरा।
यह सुना शुक्राचार्य गुरू,
कर वक्र दृष्टि बलि को घूरा।
संकल्प न हो पाये पूरा,
यह सोच लिए मन भरा खेद।
जल पात्र की टोंटी में जाकर,
खुद समा गए कर बंद छेद।
जल का अवरोध देख वामन,
तत् क्षण ही युक्ति निकाली है।
ले वज्र नुकीली कील एक,
टोंटी के अंदर डाली है।
खुल गया मार्ग जलधार लगी,
संकल्प हुआ इसके माने।
टोंटी के अंदर घुसे हुए,
गुरुदेव हो गये थे काने ।
दो मुझे तीन पग भूमि दान,
नृप तुमने शुभ संकल्प किया।
बलि बोला, कुछ ढॅंग का मांगो,
तब लगे दान दिल खोल दिया।
नन्हे पग कितना नापोगे,
कर रहे बड़ा संकोच कहीं।
इतने में सब हो जायेगा,
वामन बोले संकोच नहीं।
कर दिया नापना शुरू विप्र,
पग एक धरा धरती नापी,
दूजा पग अंबर नाप लिया,
सब जनता देख देख काॅंपी।
बनकर विराट वामन बोले,
यह दान शीलता आंकी है।
दो पग ही मैंने नापें हैं,
पग अभी तीसरा बांकी है।
है अभी अधूरा दान पड़ा,
संकल्प वचन किस तरह वरूॅं।
बतला राजा वह ठौर कहाॅं
जिस पर यह तीजा पैर धरूॅं।
कर शीश सामने नृप बोला,
संकल्प व्यर्थ ना जायेगा।
इस पर ही पग तीसरा रखें,
तब दान सफलता पायेगा।
सिर पग धर जीवन धन्य किया,
ऐसा न कोइ ज्ञानी होगा।
राजा बलि जैसा इस जग में,
कोई न और दानी होगा।
बोले रानी से वर मांगो,
तुमने संकल्प कराया है।
पग पग पर पति का साथ दिया,
पूरा कर्तव्य निभाया है।
तुम धर्म परायण पतीव्रता,
पावन सरिता सम नारी हो।
मांगो मांगो जो भी चाहो,
वर पाने की अधिकारी हो।
रानी बोली है उचित बात,
पर स्थिति यह अनुकूल नहीं।
जब सही सही हो गया सभी,
तो करें अंत में भूल नहीं।
हम राजा हैं राजा होकर,
अपनी मर्यादा क्यों लांघें।
जो स्वयं मांगने वाला हो,
उससे मांगें तो क्या मांगें।
जो मांगे न भगवान से भी,
वह ज्ञानी स्वाभीमानी है ।
भीतर भक्ती से भरा हुआ,
ऊपर लगता अभिमानी है।
हो धन्य धन्य हे दान वीर,
तुमने यह अनुपम दान दिया।
पाताल लोक का राज करो,
जाओ मैंने वरदान दिया।
बलि बोला जाउॅं अकेला मैं,
अब किसकी जिम्मेदारी में।
राजा तो तभी बनूॅंगा जब ,
खुद आप हों पहरेदारी में।
पहरा देने बलि राजा के,
भगवान द्वार पर खड़े हुए।
हो गया क्षीरसागर सूना,
नारद चिंता में पड़े हुए।
जाकर पूछा हैं प्रभू कहाॅं,
लक्ष्मी बोलीं कुछ पता नहीं।
मैं यहाॅं अकेली कई दिन से,
ढूॅंढ़ो नारद हैं जहाॅं कहीं।
उनको पाना आसान नहीं,
वे जग स्वामी अब चाकर हैं।
कर रहे नौकरी बली द्वार,
दिन रात नियम से तत्पर हैं।
यह राखी का त्यौहार मात
खुशियों को लौटा सकता है।
बलि को अपना भैया मानो,
बस इसकी आवश्यकता है।
पाताल लोक की गलियों में,
लक्ष्मी ने व्यथा सुनाई है।
मैं किसको राखी बाॅंधूॅंगी,
मेरा नाम कोई भाई है।
सुन व्यथा बली ने हर्ष जता,
आकर राखी बॅंधवाई है।
दस्तूर मांग ले बहिन खास,
जब राजा तेरा भाई है।
लक्ष्मी बोलीं अटकी नैया,
जीवन की भैया तुम खे दो।
जो पहरेदार द्वार पर है,
राखी के बदले में दे दो ।
गुरू सक्सेना
18/4/24