“बरसो रे मेघा “
कहां लुप्त हो गई है अब,
बहती सरिता की अविरल धारा ||
नदी किनारे रहने वाले जीवों का,
दुविधा में हो गया जीवन सारा ||
वन स्मृतियाँ कुम्हला गई है,
हो गया मायूस जग सारा ||
पानी पीने को तरस गये है,
मेघा भी नहीं बरस रहे है ||
पशु – पक्षी हो गए वीरान,
जीना अब हो गया बेहाल ||
किसने रोका इस धारा को,
बढा के पारा जग में सारा ||
कर दिया धरा को पराया,
हो गया जग भी भरमाया ||
बह जायेगा जग सारा,
पिघलकर इस दारुण पारा में |
तन प्यासा , मन प्यासा है,
इस जग के हर प्राणी की अाशा ,
फिर से छाएं काले मेघा,
बरसे धरा पर घनघोर घटा सा,
ऐसी है मेरी प्रत्याशा ||