बरसो मेघा
ताक रही
घूँघट पट खोले,
नील गगन प्यासी नदिया।
रूठ गये क्यों
प्रकृति के स्वामी,
सूख रही मन की बगिया ।
खेत सरोवर
फटे हृदय से,
सूखे अधर पुकार रहे I
आशा के
चादर फैलाये,
कातर नयन निहार रहे।
कृषक
व्याज के साथ है चिन्तित,
रहेगी कुँवारी बिटिया ..।
नैन-नीर अब
दिन प्रतिदिन ही ,
धरा सूखती जाती है।
मानव की
संवेदना वैसे,
नीचे गिरती जाती है।
लगी फँफूदी
मानवता को,
सड़ा रही जैसे बतिया..
बरसो मेघा
गर्जन करके ,
दर्प, द्वेष
दुख धुल जायें।
संग दामिनी
को ले टूटो,
पापी पर्दे खुल जायें ।
नदी ही यदि
कृशकाय रही तो,
क्यों न कुपोषित हो बुधिया.. I