बरसात
वो बारिश की
रिमझिम बूदों सा
सहसा एकाएक
बरसो बरस रहा है।।
ओस भरे प्रातःकाल
भ्रमण पर निकल रहा हूँ
वो अम्बर से निकलकर
धरा पे विचरण कर रहा है
मैं सहसा छाता ओढ़
तर तरण से बचा रहा हूँ
कोहरे की माया भी गजब है
जमी पे चादर सा छाया है
तृष्णा भरे मन से बरसात
के गहरे उमंग से
रात्रि के अंधकार से
भोर के प्रकाश से
चमक रहे है पिंडालु के
पत्ते बूद ‘मोतियों’ सा
देख प्रकृति -सौंदर्य का
सुकून सा मिलता
वो बारिश की
रिमझिम बूंदों सा
सहसा एकाएक
बरसो बरस रहा है ।।