बरसात
किससे कहूँ जग में
व्यथा अपने ह्रदय की
और किस अज़ीज़ पर
यकीन करूं अब मैं
मौन निमंत्रण
भेजा जब भी
ठुकराया जग में
उतनी ही बार गया !
जीवन की बरसात में
बिन अपनों के साथ से
खिलते उपवन में ही
हुए पत्ते सब पीले
अपनों की खातिर
उन दरख्तों ने ही
पतझड में खुद से
जुदा कर दिया !
गलती कर बैठे
जो खुद को कर दिया
जीवन में राख
अपनों की खातिर
दुश्मन की तलाश
अब तो की जाए
अपनों की बेरुखी से
मन भर चला है !
काँटों की तरह हुआ
इश्क में साथ तेरा
बख्शी है इज्ज़त तुम्हे
नजरों में अपनी लेना
परख इक बार कि
हक किसने दिया था
सनम इस जहां में तुझे
रूह्कशी का हमारी !
अक्स की तसदीक है
बमुश्किल आज के दौर में
खुशियों की बरसात
पराए भी ज़िन्दगी में
अक्सर कर जाते हैं
जबकि अजीज़ रहते मशगूल
बिसात काँटों की
हरपल बिछाने में !
: मुनीष भाटिया
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