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10 Jun 2021 · 1 min read

बरसात बचपन की’


भरे नैन, आंसू छलका था..
आँगन में बस! जल ही जल था..
क्षुधा संग, उलझा बचपन था..
बाढ़ में बहता, अपना घर था।
कुछ अभाव , कुछ भीगा मन था!
जाने कितनी बहती लाशें ..
अपनों का व्याकुल क्रंदन था!
कागज की कश्ती रोती सी,
छिपी हाँथ में जरा डरी सी !!
माँ की अंतिम वही निशानी ,
बढ़ती दहशत, बढ़ता पानी।
दबा जोर नैया पकड़ी थी,
जैसे वो माँ की उंगली थी..
एक चीख से आँख खुली थी..
उफ! सपने से बहुत डरी थी।
बिस्तर काग़ज की कश्ती से,
भरा पड़ा था बस मस्ती से।

स्वरचित
रश्मि लहर,
लखनऊ

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