बरसात की आत्मकथा
मैं बरसात हूँ,
और मैं थक चुकी हूँ।
थक गई हैं मेरी बूंदे,
एक दूषित धरती की तड़प मिटाते-मिटाते।
टूट चुका है मेरा मन,
पक्की ज़मीन की असीमित प्यास बुझाते-बुझाते।
काट रहे हो तुम अपने वृक्षों को,
और बहती चली जा रहीं हूँ मैं इस मिट्टी को काटते-काटते।
आँखें चमक उठती थीं जिसकी सावन के आने से,
उसी संगेमरमर को पीला किये देती हूँ आज रुलाते-रुलाते।
एक दिन अपने बादलों में रह जाउंगी,
हार जाओगे तुम मुझे बुलाते-बुलाते।
लेकिन आज नहीं,
थक चुकी हूँ परंतु हारी नहीं हूँ।
– सिद्धांत