बरखा
काले बादल को चीरती वह सफे़द बूंदे धरातल पर चोट खा रही है, मानो ओस की घनी परत पर अपने नाम की चादर फैला दी हो । ठंड, हां बढ़ रही है, धीरे-धीरे । नीचे सड़क पर यह गाड़ियों की रफ्तार इस झमाझम बारिश को मात दे रही है । कहीं दूर से रेलगाड़ी कि वह मन प्रताड़ित करने वाली सिटी की मीठी ध्वनि अपनी ओर खींचे जा रही है, सुनकर अपना शहर याद आ जाता है, और याद आने लगते हैं वह यारों से भरी महफिल, वह महफ़िल से सजी शाम, वह शाम की मंद मुस्काती कोलाहल, वह कोलाहल की संगीत, वह यार, वह याराना, वह तराना, जिन्होंने हमें हम पर छोड़ दिया यह कह कर “जाओ अपना ख्याल रखना और अब हीरो बन कर आना । और हम को भूलना नहीं”। तीर की तरह वह प्यार आज भी चुभता है, जो उन्होंने विछुड़न पल दी थी ।
रेल की धक-धक के आवाज से दिल भी उतना ही ज़ोर का धड़कने लगता है, क्योंकि याद आने लगती है एक झलक पाने वाली और बस एक बार देखकर ही फूले ना समाने वाली मेरी मां । उनके हाथ का बना अमृत और मन का बना डांट ! डांट ? डांट नहीं आशीर्वाद । जिसे हर पहर सिर्फ मेरे खाने की ताक और सवाल रहती थी । और फिर भी जब लगता था कि मेरा पेट शायद अब भी भूखा है, तो थोड़े आशीर्वाद से पेट भर दिया करती थी । “आशीर्वाद” तो समझ गए होंगे ना आप ! और मां समय-समय पर आशीर्वाद का बौछार इसलिए भी करती रहती थी, क्योंकि, वह नहीं चाहती थी कि हमें पिताजी का “ख़ास प्यार” मिले । अब पिताजी का प्यार तो उनके चप्पलों में होता है ना ! तो भला कौन मां चाहेगी कि उनके बेटे को उनसे ज्यादा कोई और प्यार करें, और वह भी ख़ास चप्पलों वाला । फिर भी पिताजी भी कम नहीं थे । उनके पास अनेकों ज़रिया था अपने प्यार को सिद्ध करने का । हमें याद है जब अपने कंधे पर बिठाकर 10 किलोमीटर का पूरा मेला घूम आया करते थे, भले ही उनकी आंखें नीचे ज़मीन पर ही क्यों न टिकी रहती थी ! प्यार तो वह अपना, संग बैठकर आज भी दिया करते हैं, ठीक उसी तरह जैसे अभी मेघ दहाड़ रही है ! आसमान में चमकती बिजलियां मुझे याद दिलाती है अपने पिताजी से मुझे मिलने वाली तेज़ की । पिताजी के वस्त्र जब मेरे अंग को शोभे थे, उस दिन पहली मर्तबा मर्द होने का एहसास हुआ था । अब तो गोद में खेलने वाला एक छोटा बच्चा सा हो गया हूं । जिसे सही गलत का ना कुछ एहसास है, ना पता ।
उंगलियों के बीच सिगरेट दबाए जब इन अल्फाज़ों को सजा रहा हूं तो, बाजू में महबूबा के बैठे होने का एहसास सा है । जो अभी मेरे बिना, उस शहर पर राज कर रही है जहां का मैं कुछ भी नहीं ।
बस एक काजल मात्र से ही वह चांद को भी चुनौती दे बैठती थी । बोल सुन तो कोयल की भी घमंड चूर हो जाए ।
सच कहूं तो रात बहुत शैतान होती है ।
न जाने क्या खूबसूरती बसती है इस कालिमा में, इसे छोड़ आंखें फेरने को जी चाहता ही नहीं । हां ।
देखो ना पौ फटने वाली है ! और मैं किस तरह इस से अभी भी लिपटा पड़ा हूं ! मुझे तो कोई इल़्म नहीं । यह तारे भी मेरे ज़ाती हैं और आसमां की गुरुर !वह तो खैर मेरी रानी के सौत है !
कमरे में बस एक बत्ती जल रही है , और मेरी खामोशी का शोर इसका साथ दे रहा है । बांकी पूरी जहां एक अलग दुनिया के आगोश में है । और इस शांत माहौल में जमीन पर लड़खड़ाते यह टिप – टिप की धीमी आवाज ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मैं फिर आज रात के अंधेरे में अपने अनुज संघ कुछ बीती इतिहास और भविष्य के समावेश का गुफ्तगू कर रहा हूं ।
वह किस तरह मेरे गोद में अपना पैर रखकर सोता था ! अगर मेरी आंखें लग जाए तो मेरी बाहों को तकिया बनाकर लोट जाता था वह ! बिना मेरे पैरों पर अपना पैर जमाए ठंड में उसे नींद कहां आती थी ! और यकीन करो, मुझे भी नहीं आती थी ।
उसके स्पर्श पर मेरी मुस्कान फूलों सी हो जाती थी । पर अब तो वह भी बड़ा हो गया है और…………….. हां शायद मैं भी । तभी तो मिले अरसा हो गया है लाडले से ।
लगता है सूरज की लालिमा छा गई। अब तो फिर से मशीनों और कोलाहलों के मेले लगेंगे ! शिकारी फिर शिकार पड़ जाएंगे ! कृष्ण फिर सारथी बनेंगे ! द्रौपदी चीर हरण को तैयार होगी ! अर्जुन का निशाना अबकी भी नहीं चूकेगा ।
चलो मैं जरा “निशा” को विदा कर आता हूं, संस्कार है हमारे ! मेहमान को द्वार तक छोड़ने के ।।