बयां ए फितरत
खुद को कोसूं या,
कोसूं मैं तकदीर को।
अपनी जिद को कोसूं मैं ,
कोसूं हाथों की लकीर को।
मैं तो छूना चाहता था मन,
दूर रखता था शरीर को।
ना चूम सकता था लब तेरा,
चूमता रहा तेरी तस्वीर को।
नास्तिक था मैं तबियत से फिर भी,
पूजता रहा हर पत्थर, हर पीर को।
इश्क में खोया मैंने अमन ओ एतबार ,
सबसे बेशकीमती आंखों से नीर को।
तेरी इस फितरत ने ही चुभाया,
कांटा और फिर नफ़रती तीर को।
हर प्रेमी करेगा नफरत इश्क से,
पढ़कर हंसेगा ग़ालिब,मोमीन मीर को।