बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
नीम की डाली बैठी चिरैयां ,
चहक-चहक के गावे ,
शीतल जल में डुबकी लगा के ,
जीवन सन्देश सुनावे ;
खुशहाली के रीत छुपल बा , हर पेड़ लता के नांव हो ,
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
तितली के बहुरंग देख ल , सुन्दर पगडंडी के छांव हो ,
कोयल के मीठी तान सुमनोहर , चहुंओर बसन्त प्रभाव हो ,
गोधूलि बेला में धूल उड़ाती, आवे घंटी बजाती गाय हो ;
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
निर्झर नदियां पुण्यसलिला ,
बहे जावे धवल-धार हो ,
हरे-भरे वृक्ष दिव्य मनोहार, गुंजरित तटिनी किनार हो !
पोखर-कुंआ अभी भी जीवित बा ,
बरसावे सद्भाव हो ,
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
शांत , सरल , सहज – सरसमय, पुष्पित- पल्लवित,सुरभित ;
सबसे अलग, सबसे सुरक्षित ,रमे-जमे संपुरित !
बचपन के आनन्द लड़ते-झगड़ते ,
अमवा- पीपल के छांव हो ,
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
धानी धरती के कण-कण में,
मृदु संचरित सौगात दीखे ,
सन्-सन् हवा बहे मतवाली,
संसृत यौवन के प्रात् दीखे !
हरियाली ले फसल खड़ी है,
अहा ! वही पुरातन भाव हो ;
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
चैन से सोये , चैन से जीये ,
जलते चूल्हे आकाश हो ,
खिलखिलाती किरण फैले स्नेह के ,
कोई वंचित नाहीं संत्रास हो !
घने बरगद के नीचे छाया में, सुखद् शांति विश्राम हो ;
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
पाप-पंक में फंसी हुई नहीं है निर्लज्ज नारी ,
प्रलय की अनल शिखा समान, वीभत्स दृढ़ व्रतधारी !
ग्राम्य समाज उच्च समेकित, दीनता के अभाव हो ,
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
खेतों में विविध फसल , नित नए-नए रोपावे हो ,
मूसलाधार वर्षा में भींगे, सींचे हर्षावे हो ,
वर्षा के सावन में झूमे, लोकगीत के मनहर भाव हो ;
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
कंक्रीट के जंगल कहीं ना मिली,
ना मिलिहें हत्यार हो ,
गांव गली खेतों की मिट्टी, जीवन के आधार हो !
मिट्टी के जीवंत परम्परा के , अद्भुत सौंदर्य प्रभाव हो ,
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
विकास यात्रा में दब गये , बहुत मिलल सिसकारी ,
गांव छोड़के , अपनों की निगल रही लाचारी ;
शहर निकम्मे हो चले हैं ,लागल अस्तित्व के दांव हो ;
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
विरह की कजरी सुखदाई , और ढोलक की थापें ,
गा-गाकर पुकारें सारी सुनहरी रातें ;
प्रात प्रेयसी मिलन मनोहर , श्रृंगार सरसमयी भाव हो ,
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
आर्यावर्त की वेलाभूमि पर , पुण्य उद्बोधन के गीत खिलें ,
हृदय के उद्गार सन्निहित , वीस्तीर्ण सिन्धु के प्रीत मिलें ;
नृत्य-रंजित निहार-कणिकाएं अलौकिक,
अहा ! मधुमय सींचित भाव हो ;
बबुआ आ जा पुकारे तोहरे गांव हो !
✍? आलोक पाण्डेय ‘विश्वबन्धु’