बना रही थी संवेदनशील मुझे
जब मै टहल रहा मदहोस था,
सुना , रोते किसी को बागो में,
फल लदे हुए थे वृक्ष की गोद मे,
ना भूख थी, ना बेहोश थी,
आंँसू मे डूबे आँखें ,
मन मे उठता कोई शैलाब था,
कुछ तो बात थी,
ना जाने क्यो हताश थी,
किस आस में वो बैठी थी,
किसकी तलाश में ऐसी थी,
गोल–गोल चक्कर काट रहा था,
पर नजरें उस पर टिकी थी,
कुछ मुझमें था जो खींच रही थी,
वो आंखे मीच रही थी,
उसके चेहरे की शीरत बोल रही थी,
कदम वही जा रुक गये,
बोलो क्या बात है ?
पूछ पड़ा मै,
कुछ भी नहीं जबाब मिला यह,
ऐसे ना बैठो घर जाओ फिर,
कैसे मै जाऊ घर छोड़ आयी मै,
धोखा अब मै खायी हूँ,
मौका भी गवाई हूँ,
बातो ही बातो मे सिलसिला शुरु हुआ,
कुछ तो था जो रुका नहीं,
बह रही थी अविरल धारा सी,
बना रही थी संवेदनशील मुझे,
जगा रही थी भावुकता हृदय में,
अंजान बिन नाम के भी,
हर उठते सवालों का जबाब बन रहा था,
क्या था जो हर बात बता रहा था,
खिचा चला जा रहा था,
निकट थे अब एक दूसरे को सहनुभूति जता रहे थे।
रचनाकार –
बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर।