” बना + रस = बनारस “
कोई खुबसुरती का गुमान करता है
कोई दौलत का अभिमान करता है
हम बनारस वालों का तो मान
हमारा बनारसी पान करता है ,
कोई अलख जगाता है
कोई वेदी सजाता है
हम बनारस वालों का मन
बस शिव – शंभु में रमता है ,
कोई पश्मीना पहनता है
कोई शाहतूश सहेजता है
हम बनारस वालों का तो तन
बनारसी किमख़ाब से फबता है ,
कोई ताज को साक़िब कहता है
कोई गुरुद्वारे को हाफिज जानता है
हम बनारस वालों का दिल
गंगा के घाटों को आशिक मानता है ,
कोई लड्डू नवाज़ता है
कोई पेड़ा सहेजता है
हम बनारस वालों का तो
प्रसाद भी भांग का चढ़ता है ,
कोई इत्र से गमकता है
कोई गुलाब जल से महकता है
हम बनारस वालों को
महादेव का भस्म ही संवारता है ,
कोई अच्छे कर्मों से मुक्ति पाता है
कोई धन से युक्ति लगाता है
हम बनारस वालो का अंतः शरीर
बिना ताम झाम के वैतरणी तरता है ,
कोई मिठास के लिए कलाकंद खाता है
कोई तरावट के लिए मकरंद पीता है
हम बनारस वालों की तो
बोली में ही अद्भुत बना – रस घुलता है
बोली में ही अद्भुत बना – रस घुलता है ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 04/08/2021 )