बनारस की गलियों की शाम हो तुम।
क्लास सेवन से शुरू हमारी प्यार की कहानी हुई,
मैं उसका और वह मेरे प्यार की दीवानी हुई,
स्कूल के बाद कॉफीशप पर मिला करते थे ,
अपने अपने दिल की हर एक बात कहा करते थे।
वह अक्सर मुझे देखकर हस दिया करती थी,
बातों ही बातों में यूं शायराना करती थी-
“बनारस की गलियों की शाम हो तुम,
मैं बरसाना की राधिका और वृंदावन के श्याम हो तुम
मेरे चेहरे की खिलती हुई मुस्कान हो तुम,
मैं सीता और त्रेता युग के राम हो तुम”।
वह अपने हर इजहार में ,
मेरे इश्क को अधूरा बताती रही,
और मैं उसमें अपना सारा जहां देखता रहा।
उसके इश्क़ में थोड़ी सी पनाह चाहता था,
शायद इसलिए उसमें मैं सरा जहां चाहता था।
तुम छोड़ गई, मुंह मोड़ गई ,
क्या खता हुई हमसे जो दिल मेरा तोड़ गई।
तूने क्या सोचा तन्हाइयो में बीत रहा होगा दिन मेरा ,
तेरी बेवफ़ाई यो में बित रहा होगा दिन मेरा ।
बेशक तेरी यादों में खुद को भुला चुका था,
अपने हर पलों में तुझको ही ढूंढ़ रहा था।
लेकिन अब यह जान लें इन, बातो को तू भी मान ले,
सूखे हुए पत्तों की खाक की तरह हो गई है,
बचपन की किसी अनसुनी बात कि तरह हो गई है।
मुझ से प्यार नहीं था ,इन बातो का गम नहीं ,
ये बातें कभी मुझ से कहा नहीं ,
यह बातें सताती बहुत थी।