बदली
बदली
घर की छत पर
बैठे-बैठे
निहार रहा था
बादलों को
तभी एक सुंदर
बदली आई
मेरे मन को खूब भाई
वो आई और
चली गई
मेरी रूह छली गई
विरह की
कढ़ाई में तली गई
वो बदली
जाने कहाँ
बरसी होगी
कहाँ-कहाँ धरती
तरसी होगी
-विनोद सिल्ला©
बदली
घर की छत पर
बैठे-बैठे
निहार रहा था
बादलों को
तभी एक सुंदर
बदली आई
मेरे मन को खूब भाई
वो आई और
चली गई
मेरी रूह छली गई
विरह की
कढ़ाई में तली गई
वो बदली
जाने कहाँ
बरसी होगी
कहाँ-कहाँ धरती
तरसी होगी
-विनोद सिल्ला©