बदली गम की छंटती, चली गई धीरे धीरे
बदली गम की छंटती, चली गई धीरे धीरे
राह जीने की बनती, चली गई धीरे धीरे।
लगता तो था ना ज़ी पाऊँगा बिन उसके
आदत जीने की पड़ती, चली गई धीरे धीरे।
समझ जब आने लगा दुनिया है फ़ानी
लौ ईश्वर से लगती, चली गई धीरे धीरे।
ये चिंता कभी वो चिंता रही घेरे सदा चिंता
दिल दिमाग गम करती, चली गई धीरे धीरे।
अहम! ना मैं छोड़ पाया ना उसने ही त्यागा
चादर रिश्तों की फटती, चली गई धीरे धीरे।
गलतफ़हमी की वज़ह से बढ़ती गईँ दूरियाँ
गर्माहट रिश्ते में घटती, चली गई धीरे धीरे।
माँ बाप थे जब जिंदा घर में सुख चैन था
फिज़ाँ घर की बदलती, चली गई धीरे धीरे।
गन्दगी शहरों,कारखानों की डाली जाने लगी
माँ गंगा गंदी नदी बनती, चली गई धीरे धीरे।
पहले बोलचाल बंद फिर आना जाना भी बंद
दीवार रिश्तों की ढ़हती, चली गई धीरे धीरे ।
मेहनत का मूल मन्त्र जो अपनाया जो मैने
सूरत जिन्दगी की बदलती, चली गई धीरे धीरे ।
अनिल “आदर्श”