बदला-बदला शहर हो गया
ग़ज़ल….
बदला-बदला शहर हो गया…
बदला-बदला शहर हो गया
पानी उसका जहर हो गया…
इंसानों की बात नहीं यह..
शैतानों का बसर हो गया
हुए अपरिचित हम अपनों से
अनजानों का डगर हो गया …
रहे समझते जिसको साथी
अवसरवादी मगर हो गया…
कल तक तो थे पहने खद्दर
अब कुर्ते का कहर हो गया…
नहीं थपेड़ा पता जिसे तट
वह सागर का लहर हो गया..
दरबारों में छिपा भेड़िया
दर-दर उसका पहर हो गया…
था लम्पट, कपटी, दुष्कर्मी
देखो वह भी अमर हो गया…
रिस्तो की लडियाँ सब टूटी
जाने कितना समर हो गया…..
हुई फ़रेबी अब यह दुनियां
छोटा सबका जिगर हो गया…
लिखने वाले सब लिखते हैं
लिखने का यह दहर हो गया….
शब्द जुड़े जब भाव सुमन से
तब गुलशन का महर हो गया…
मन में आया तो लिख डाला
‘राही’ यह तो बहर हो गया …
डाॅ. राजेन्द्र सिंह ‘राही’
(बस्ती उ. प्र.)