बदलाव की ओर
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गर्मी में हवा इतनी गर्म है जैसे तंदूर से निकल रही है,
इंसान की बेशर्म नीयत जंगलों को निगल रही है ।।
जंगलों को काटकर घर बनाए जा रहे हैं,
गमलों में पौधे लगाकर घरों में जंगल बनाए जा रहे हैं ।।
जंगल का कानून अब घर समाज में पसर रहा है,
जो ताकतवर है कमजोर का शिकार कर रहा है ।।
जंगलों की जमीन छीनकर, अपने नाम की जा रही है,
चिड़ियाघर में कैद कर जानवरों पर हमदर्दी दिखाई जा रही है ।।
इंसानियत को खत्म कर इंसान ही खूँखार जानवर हो गया है,
जंगलो में शेर को विलुप्त कर, इंसान ही शेर हो गया है ।।
prAstya…… (प्रशांत सोलंकी)