बदलाव का वाहक होता है यौवन
विषय का विस्तार करें, इसके पहले हिंदी साहित्य के दो लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार-कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की लिखित चंद पंक्तियां आपके सामने पेश करना जरूरी समझता हूं :-
‘‘वय की गंभीरता से मिश्रित
यौवन का आदर होता है,
वार्द्धक्य शोभता वह जिसमें
जीवित हो जोश जवानी का.’’
*
‘‘जवानी का समय भी खूब होता है
थिरकता जब उंगलियों पर,
गगन की आंख का सपना.
कि जब प्रत्येक नारी नायिका-सी
भव्य लगती है
कि जब प्रत्येक नर लगता हमें
प्रेमी परम अपना.’’
इसी तरह माखनलाल चतुर्वेदी ‘एक भारतीय आत्मा’ की लिखित पंक्तियां भी आपके पठनार्थ पेश हैं:
‘‘हम कहते हैं बुरा न मानो
यौवन मधुर सुनहली छाया,
सपना है, जादू है, छल है ऐसा
पानी पर बनती-मिटती रेखा-सा
मिट-मिटकर दुुनिया देखे रोज तमाशा
यह गुदगुदी, यही बीमारी
मन हुलसावे, छीजे काया
वह आया आंखों में दिल में छुपकर
वह आया सपने में मन में उठकर
वह आया सांसों में से रुक-रुककर
हो न पुराना, नई उठे फिर
कैसी कठिन मोहिनी माया,
हम कहते हैं बुरा न मानो
यौवन मधुर सुनहली छाया.’’
महाकवियों की उक्त पंक्तियों से एक बात तो स्पष्ट हुई कि अक्सर अधिकांश लोग जीवन को जो बचपन, किशोर, यौवन और वृद्धावस्था में बांटते हुए यौवन को केवल ‘उम्र की अवस्था’ बताते हैं, वह इसका केवल एक पक्ष है जबकि वास्तविकता यह है कि यौवन केवल तन नहीं, मन की भी अवस्था है. साठ वर्ष से अधिक का व्यक्ति भी मन के यौवन से सराबोर होकर समाज-देश के विकास में अपना योगदान दे सकता है. चूंकि हम सब भी इस अवस्था से गुजरते हैं इसलिए जानते हैं कि युवा मन अर्थात जिसे दूसरे शब्दों में ‘यौवन से सराबोर मन’ कह सकते हैं, बंद खिड़की-दरवाजे वाला मकान नहीं होता. जो एक बार ठान लिया; वह करके ही दम लिया. जिसे एक बार मान लिया; उस पर अपना सर्वस्व लुटा दिया. जो युवा होता है वह किसी काम को न करने का बहाना नहीं खोजता. लेकिन उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध करने के लिए मजबूर भी नहीं किया जा सकता. युवा, ढूंढ-ढूंढकर चुनौतियों से टकराता है. वह पराक्रम दिखाने के मौके तलाशता रहता है. वह अपने लिए खुद चुनौतियां निर्मित कर सुख पाता है. मैं अपने वय:संधि काल के दौर का उदाहरण देना चाहता हूं कि जब हम उस दौर में कहीं अपने स्कूल प्रिंसिपल के खिलाफ हड़ताल करते, कहीं राम मंदिर की राजनीति में जोर-शोर से भाग लेता े(हालांकि अब मैं इसे बेमतलब का मुद्दा मानता हूं), तो कहीं साहित्य सृजन मंच के काम में जुटे रहते थे तो पिताजी इस बात से खफा रहते थे और जीवन के उतार-चढ़ाव को लेकर दुनियादारी हमें समझाते थे, तब उसकी प्रतिक्रिया के तौर पर मैंने अनेकानेक कविताएं लिखी थीं, उनमें से एक कविता मैं यहां उल्लेख करना चाहता हूं:-
‘‘अनुभवियों/बुजुर्गों में
और नवजवानों में
पैतृक दुश्मनी है.
अनुभवियों/बुजुर्गों ने कहा-
उड़ने का प्रयास ही नहीं करना
गिर जाओगे/ तबाह हो जाओगे/मर जाओगे
लेकिन-
नवसत्यानुवेषियों/ युवाओं ने
उसके विपरीत जिद ठानकर
सिर्फ उड़कर ही नहीं
चांद पर पहुंचकर ही दम लिया.’’
मैं स्वयं अपने अनुभवों से इस सच को मानता हूं कि युवा, भूत नहीं होता. युवा, भविष्य और वर्तमान के बीच झूला भी नहीं झूलता. वर्तमान के लिए भविष्य लुटता हो तो लुटे. दुनिया उसे अव्यावहारिक, पागल, दीवाना या दुनियादारी को न समझनेवाला कहती हो, तो कहे. यौवनशक्ति से सराबोर युवा, बंधनों और बने-बनाए रास्तों पर चलने की बाध्यता नहीं मानता. वह नए रास्ते बनाता है. इन नए रास्तों को ही बदलाव कहते हैं. इसलिए युवा को बदलाव का वाहक कहा गया है. बदलाव, अवश्यंभावी है. आप इन्हें स्वीकारें, न स्वीकारें.. ये तो होंगे ही. तथाकथित बुजुर्ग कितना ही हायतौबा मचाते रहें, युवाओं की यौवन शक्ति अपनी प्रवृत्ति से बाज नहीं आएगी, वह बदलाव की ओर प्रवृत्त होगी ही. कोई भी देश और समाज अपनी बनाई लीक पर खड़े किए सवालों को तत्काल कभी भी स्वीकार नहीं करता अत: उसकी निगाह में युवा विद्रोही हो जाता है, अनुशासनहीन कहलाता है, तथाकथित बुजुर्ग स्वयं मुड़कर देखें और विचार करें कि उनके बारे में उनकी पूर्ववर्ती पीढ़ी क्या कहती थी?
हमें यह समझना होगा कि समाज की बनाई लीक का टूटना हमेशा नकारात्मक नहीं होता. आज भी बनी-बनाई लीकें टूट रही हैं. आज भी सवाल खड़े ही किए जा रहे हैं. आज परिवर्तन के तौर-तरीकों के साइड इफेक्ट इतने ज्यादा हैं कि समाजशास्त्रियों के चश्मे में और कोई नंबर फिट बैठ ही नहीं रहा. बदलावों की सकारात्मकता उन्हें दिखाई ही नहीं दे रही. यह बात बुजुर्ग हमेशा से कहते आए हैं कि इस उम्र में निडरता है, लेकिन उससे पैदा होने वाला अनुशासन गायब है. खासकर यौन संबंधों और अपराधों को लेकर युवाओं पर यह तोहमत लगाई जाती है. समाजशास्त्री भी इसे समाज का आईना बता रहे हैं. अफसोस है कि मीडिया भी समय-समय पर इसे ही भारत की तस्वीर के रूप पेश करता रहा है. भारतीय संदर्भ में बात करें, तो हम इन्हें नकारात्मक सामाजिक बदलाव कह सकते हैं. हालांकि ये सब उसकी देन नहीं है जिसे उम्र की सीमा में बांधकर यौवन कहते हैं. संतान की शारीरिक सुंदरता, करियर और पैकेज की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाले अभिभावकों की उम्र क्या होती है? यह कोई बतलाएगा भला. सामाजिक बदलाव को दिशा देने का दायित्व धर्मगुरुओं के अलावा विश्वविद्यालय-मीडिया जैसे संस्थानों की है. हमें यह समझना होगा कि भारत में वर्तमान सामाजिक बदलावों की पूरी तस्वीर यह नहीं है. खलनायकों के पोस्टर वाली इस फिल्म में नायकों को छापा ही नहीं गया. यदि कुल मिलाकर तस्वीर यही होती, तो हमने दिल्ली के रामलीला मैदान में 8 से 80 वर्ष की उम्र के जिन युवाओं को अन्ना-अनशन के समर्थन में खड़ा देखा, वह न होता. बढ़ती आबादी और अवसर की कमी के बावजूद देश-समाज में अपवादों को छोड़ दिया जाए तो समाज में समसरसता की दिशा में बढ़ रहा है, देश भौतिक विकास की दिशा में भी शनै:-शनै: आगे बढ़ रहा है. उत्तरांचल में मंदाकिनी की धारा के लिए जान-जोखिम में डालकर पहाड़ी-पहाड़ी हुंकार भरने वाली सुशीला भंडारी का कोई नामलेवा न होता. पटना के सुपर-30 जैसा प्रयास कोई करता ही नहीं. देश ने तरक्की के इस दौर को जो पाया है, इस बदलाव का असली नायक युवा और उसकी यौवन-शक्ति ही है, वही उसे जोखिम उठाने का ताकत देती है.
हम जरा बदलाव की ओर देखें तो आज भारत के मानव संसाधन की दुनिया में साख है. आज सिर्फ पांच घंटे सोकर काम करने वाली शहरी नौजवानों की खेप की खेप है. जनसंख्या दर और दहेज हत्या में कमी के आंकड़े हैं. देश के शिक्षा बोर्डों में ज्यादा प्रतिशत पाने वालों में लड़कों से ज्यादा संख्या लड़कियों की दिखाई दे रही है. एक वक्त वह भी था जब नारी-शक्ति को दोयम मानकर धर्म-शास्त्रों में निंदित तक किया गया था. लेकिन तमाम चुनौतियों को पार करते हुए ओडिशा के सुदूर गांव की आदिवासी लड़की भी महानगर में अकेले रहकर पढ़ने का हौसला जुटा रही है.
दिल्ली की झोपड़पट्टी में रहकर बमुश्किल रोटी का इंतजाम कर सकने वाली नन्ही बुआ के बेटे के मात्र 25 साल की उम्र में जापान की कंपनी का महाप्रबंधक बनने को अब कोई अजूबा नहीं कहता. निर्णयशक्ति अब सिर्फ ऊंची कही जाने वाली जातियों के हाथ में नहीं रही. कम से कम शहर व कस्बों में अब कोई अछूत नहीं है. जिसकी हैसियत है, उसकी जाति नजरअंदाज की जाती है. रिश्ते अब तीन-तेरह की श्रेणी या परिवार की हैसियत से ज्यादा, लड़का-लड़की की शिक्षा और संभावनाओं पर तय होते हैं. खेतिहर मजदूर आज खेत मालिक की शर्तों पर काम करने को मजबूर नहीं है. बंधुआ मजदूरी का दाग मिट रहा है. ये सकारात्मक बदलाव हैं, जिन्हें युवा मन और उसकी यौवन-शक्ति ही अंजाम दे रहे हैं. यौवन की ताकत से सराबोर युवाओं से प्रेरणा लेकर अगर बुजुर्गगण भी अपने काम को अंजाम दें तो देश के विकास की गति को और भी तीव्र अंजाम दिया जा सकता है. देश की तरक्की के लिए उम्मीद की किरण यदि कहीं नजर आती है तो वे युवा ही हैं, जो अपना समय-श्रम-कौशल बहुत कुछ देने को तैयार रहते हैं और बदले में चाहते हैं, तो सिर्फ थोड़ी सी थपथपाहट, थोड़ी सी ईमानदारी, थोड़ा सा प्रोत्साहन.
(लोकमत समाचार, नागपुर के दिवाली विशेषांक दीप उत्सव-2019 में प्रकाशित)