बदलते वख़्त के मिज़ाज़
बदलते वख़्त के मिज़ाज़ के साथ
बसेरा बहुत दूर
वतन से हो तो जाता है
पर जड़ों में की घर की याद
और सोच में मिट्टी की महक बाकी है
यही वो एहसास है की”ज़िंदा हूँ”
ना ही वो बचपन भूलता है –
ना ही बिताये पल !
बस अब फ़ोन ही समेटती है
कुछ पुरानी बिखरती यादों को
कल जब भाई ने कहा
ये कैसी महामारी –
ये कैसा कहर है
अमीर तो चले गए
पहाड़ियों में बसर करने
दिहाड़ियों की जिंदगी का
ठौर ना जाने कहाँ टिके
ये सोच के ही अंदर
कुछ मर सा जाता है
कल जब भाई ने कहा
आजकल मोटर गाड़ियों का शोर
या रिक्शेवाले की घंटी
सड़कों पर सुनाई नहीं देती
अब मोहल्ले के घरों में
कोई डाकिये की राह नहीं देखता
कोई पड़ोसियों के घर जा
चीनी उधार नहीं लेता
तपाक से गले से लगने वाले
अब तो हाथ भी ख़ौफ़ से मिलाते हैं
सब्जी वालों की रेडियां
सड़क के कोने पर
यूँ ही बेकार पड़ी हैं
खाई से भी गहरी- आंखों में उनकी
भूख नहीं- दर्द दिखता है
और वो सुकून इस रोग के सन्नाटे में
वो अपना घर- अपने लोग
अपना पुराना शहर
ना जाने कहाँ गुम हो गया है
अतुल कृष्ण