बदलती परम्परा
साल दर साल बितता
जा रहा है।
हम नये भेष -भुषा,
नये आचार-विचार में,
अपने आप को ढालते
जा रहे हैं।
पुरानी सारी परम्पराओं
को त्यागते हुए,
अपने ही संस्कारों पर
प्रश्न चिन्ह लगाते हुए ,
हम आगे बढ़ते जा रहे हैं!
पर क्या हम अपने मन में
सकून पा रहे हैं ,
जब आगे सब कुछ अच्छा है!
फिर हम सब क्यों,
पीछे मुड़कर देख रहे!
आज जब बच्चों के पास
हमारे लिए समय नहीं है,
और न उनके नजरो में
संस्कारों का कोई मोल ,
तो हम इस बात के लिए रो रहे हैं।
पर एक मिनट रूक कर
कभी सोचिये,
अपने मन के अंदर झाँक कर
क्या हमने अपने बच्चों के
बचपन में, संस्कार भरा था !
जो आज हम खोज रहे।
एक बार फिर से
समझने की जरूरत है
कबीर दास की वह वाणी को
जिसमें उन्होंने कहा था ,
बोया पेड़ बबूल का ‘
तो आम’ कहा से खाय
इसलिए अगर हम सब
पीछे मुड़ना नही चाहते हैं,
तो अपने संस्कारो मे
डाल कर जान,
अपने से बेहतर अपने
भविष्य को बनाईये।
~अनामिका