बदरंग हुई फिजा
बदरंग हुई फ़िजा ,कट गया पेड़ जो छाया दार हुआ
बरगद दादा छोड़ चले हमें तो जीना भी दुश्वार हुआ
नयनो के सुने आकाश में घनघोर अश्क बरस पडें
दुश्मने जाँ दिल के मेहमाँ बने तो टूटकर प्यार हुआ
जज्बात के जलजलें वक्त के अंधड़ के संग सीने में
अरमानो के किले ढा दिये ‘खूँ से तर अखबार हुआ
ये तेरा चाँद सा चेहरा लूट ले गया दिल की विरासत
नकाब के पीछे से जब चाँद का हमको दीदार हुआ
सुना था शब् में तारों की चुनरिया ओढ़ के आएगी
रात ढल चली पर खत्म ना उसका तो श्रृंगार हुआ
खिल के बिखर चले है सरेबाग मेरे अरमानो के गुल
हम किस पर फ़िदा,गुलाब के संग क्यों ये खार हुआ
गिरते गिरते इतने गिरे की सम्भल ना सके मियां हम
उसने मुस्कुरा के देखा तो अशोक का शिकार हुआ
कह गए यहाँ इज्जत ना हो ठहरना उचित नहीं है
क्यों सरेबजार तुझे हमसे ही अशोक ये प्यार हुआ
दामन में मेरे बहार लेके आई थी रुसवा हो गई जो
उसकी याद से जख्म हरे हुए जब भी दीदार हुआ
कागज़ पे आँखें नीचोड़ के लिख डाले किस्से मैंने
पर सस्ती चीज़ों का कब कभी कोई खरीदार हुआ
हमसफर तेरे बिना कटता नहीं जिंदगी का सफर
चल हट मनहूस कहते जैसे मैं रस्ते की दीवार हुआ
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से
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