बढ़ रही गर्मी, कट रहे पेड़
विषय: ” बढ़ रही गर्मी, कट रहे पेड़
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विद्या: स्वतंत्र रचना
मैं रीढ़ सा जुडा इस धरा से,।
मैं मरुं नित असहनीय पीडा से,
मैं गुजरता नित कठिन परिस्थितियों से, मेरी सुंदरता कोमल शाखाओं से,
उमर से पहले ही रहता मानव,
मुझे काटने को तैयार,
पल भर में करता अपाहिज और लाचार,
पीपल, बरगद, नीम और साल
काट दिए मेरे अनगिनत साथी विशाल,
शैतानी मानव कर रहा,
अपना रेगिस्तानी जाल तैयार,
चंद सिक्कों की खातिर,
भूल गया मेरा अस्तित्व,
मानव तु पछताएगा, चारों दिशाओं में बढते तापमान से ध्रुव व हिमायल पिघल जाएगा।
तपती गर्मी की तपिश से झुलस जाएगा।
मैं हवा को साफ करता,
बारिश में सहाय हुँ, बाढ़ रोकता ढाल बनके,
पंछियों का घर आँगन भी मैं,
फल, फूल और लाभ विभिन्न प्रकार,
फिर भी मानव करे मेरा तिरस्कार,
सौगंध है, मानव तुझे धरा की,
सुनले आज मेरी गुहार, नहीं तो जीवन होगा बेहाल,
काटो न काटने दो का नारा,
है जीवन का सबसे बड़ा सहारा।
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मौलिक रचना
अरुणा डोगरा शर्मा
मोहाली
८७२८००२५५५
aru.sharma96@gmail.com