बढ़े चलो (वीर रस)
हिमाद्री विंध्य श्रृंग से,
सागर हिन्द तरंग से,
रेगिस्तान की रेत से,
वनाच्छादित प्रदेश से,
मांँ भारती पुकारती,
भारत शीश हिमेश से।
प्रचंड अग्नि भर हृदय,
तुम दुश्मनों पर टूट पड़ो।
मांँ भारती के वीर सपूत, रुको नहीं बढ़े चलो।
शत्रु उठा रहा है सर,
टेढ़ी नजर से ताक रहा,
समीप आ वह सीमा पर,
कुछ खलबली मचा रहा,
रखने ना पाए एक कदम भी,
देश के भू -भाग पर,
बलशाली अपने करो से,
रिपु दल का संहार करो।
मांँ भारती के वीर सपूत, रुको नहीं बढ़े चलो।
करोड़ों माँ का आशीर्वाद,
आज तुम्हारे साथ है,
हिन्द बहनों की दुआएं,
भी तो तुम्हें प्राप्त है,
पल भर भी ना पड़ कर,
असमंजस की स्थिति में,
खल विनाशी शत्रुओं पर,
शीघ्र तुम प्रहार करो।
मांँ भारती के वीर सपूत, रुको नहीं बढ़े चलो।
निज हृदय में कोटि – कोटि,
सूर्य तेज प्रकाश भरो,
सहस्त्र मेघ -मेघ द्वंद्व,
गर्ज – गर्जना करो,
कड़कती चपला गति से,
शत्रुओं पर चोंट करो,
तेज धारा देवनदी से,
तेज तुम आगे बढ़ो।
मांँ भारती के वीर सपूत, रुको नहीं बढ़े चलो।
रक्त लाल स्याही से,
इतिहास आज रचना है,
शत्रु शीश काट- काट,
स्वयं भी तो कटना है,
देश पर ना आए आंँच,
न प्राण चाहे बचना है,
नृरसिंह तुम झपट पढ़ो,
शत्रु पर विजय करो।
मांँ भारती के वीर सपूत, रुको नहीं बढ़े चलो।
-विष्णु प्रसाद ‘पांँचोटिया’
््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््