बढ़ने वाला बढ़ रहा, तू यूं ही सोता रह…
बढ़ने वाला बढ़ रहा
तू यूं ही सोता रह
नियति का रोया रोता रह
पता है तुझको, पता है मुझको
संध्या ढली तो
उजालों का आना तय है
फिर भी क्यों डरता है बाधा से
हर बाधा का
निष्कर्ष निकलना तय है
बढ़ने वाला बढ़ रहा,
तू यूं ही सोता रह…
सफल से सफल मनुज से पूछो
क्या आपने कभी हारा नहीं है
अरे ! वे हारे हैं वे हारे हैं
वो भी बार-बार हारे हैं
उजाले को अंधेरा
कब तक छिपा पाता है
फिर भी तू क्यों डरता है
चलो चले कुछ कर जाए
बिना किए किसी की मान नहीं होती
बिना श्रम के कोई महान नहीं होती
बढ़ने वाला बढ़ रहा, तू यूं ही सोता रह…
समय का देखो खेल
जब बीत जाती, तब याद आती
काश ! उस समय कुछ कर लेते
आज तो क्षण भर की निवृत्ति कहां
जिंदगी व्यस्त सी हो जाती
एक अरसे में…
हमारे सपने और
ख्वाहिश अधूरी सी रह जाती
चाह कर भी प्रवृत्ति में रहते
अतः जग जग कर कुछ करता रह
बढ़ने वाला बढ़ रहा, तू यूं ही सोता रह…
कवि:- अमरेश कुमार वर्मा