“बज”–”बजाते”—संकलनकर्ता: महावीर उत्तरांचली
(1.)
याद इक हीर की सताती है
बाँसुरी जब कभी बजाते हैं
—मुमताज़ राशिद
(2.)
कभू करते हो झाँझ आ हम से
कभी झाँझ और दफ़ बजाते हो
—मिर्ज़ा अज़फ़री
(3.)
ग़रीबों को फ़क़त उपदेश की घुट्टी पिलाते हो
बड़े आराम से तुम चैन की बंसी बजाते हो
—महावीर उत्तरांचली
(4.)
अब जिंस में नहीं रही तख़सीस रंग की
दोनों तरफ़ ही सीटी बजाते हैं पैरहन
—महमूद इश्क़ी
(5.)
कहानी ख़त्म हुई और ऐसी ख़त्म हुई
कि लोग रोने लगे तालियाँ बजाते हुए
—रहमान फ़ारिस
(6.)
ऐ सेहन-ए-चमन के ज़िंदानी कर जश्न-ए-तरब की तय्यारी
बजते हैं बहारों के कंगन ज़ंजीर की ये आवाज़ नहीं
—क़तील शिफ़ाई
(7.)
नींद के बीन बजाते ही ‘अश्क’
बिस्तर में साँप आ जाता है
—परवीन कुमार अश्क
(8.)
हँसाते हैं तुझे साकिन चमन के किस ख़ुशामद से
कि बुलबुल है ग़ज़ल-ख़्वाँ चुटकियाँ ग़ुंचे बजाते हैं
—वलीउल्लाह मुहिब
(9.)
गीतों में कुछ और न हो इक कैफ़ियत सी रहती थी
जब भी मिसरे रक़्साँ होते मअ’नी साज़ बजाते थे
—जमीलुद्दीन आली
(10.)
वो ताज़ा-दम हैं नए शो’बदे दिखाते हुए
अवाम थकने लगे तालियाँ बजाते हुए
—अज़हर इनायती
(11.)
अजब कुछ हाल हो जाता है अपना बे-क़रारी से
बजाते हैं कभी जब वो सितार आहिस्ता आहिस्ता
—हसरत मोहानी
(12.)
ये चुटकी की करामत है कि बस चुटकी बजाते हैं
हुमक कर आने लगता है ख़याल-ए-यार चुटकी में
—अमीरुल इस्लाम हाशमी
(13.)
शाम तलक आदाब बजाते गर्दन दुखने लगती है
प्यादे हो कर शाहों वाली आबादी में रहते हैं
—प्रबुद्ध सौरभ
(14.)
याद में किस की ग़ुन-ग़ुना-उन्ना
यूँ बजाते सितार जाते हो
—मिर्ज़ा अज़फ़री
(15.)
मंसब-ए-इश्क़ है अगर तुझ कूँ
नौबत-ए-आह कूँ बजाता रह
—सिराज औरंगाबादी
(16.)
जब सुनहरी चूड़ियाँ बजती हैं दिल के साज़ पर
नाचती है गर्दिश-ए-अय्याम तेरे शहर में
—प्रेम वारबर्टनी
(17.)
बजते हुए घुंघरू थे उड़ती हुई तानें थीं
पहले इन्ही गलियों में नग़्मों की दुकानें थीं
—क़ैसर-उल जाफ़री
(18.)
दिल में बजता हुआ धड़कता हुआ
अपनी तन्हाई का गजर देखूँ
—आसिमा ताहिर
(19.)
कुछ अजब सा था मंज़र गई रात का
दूर घड़ियाल बजता हुआ और मैं
—सदफ़ जाफ़री
(20.)
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहीं मातम भी होते हैं
—दाग़ देहलवी
(21.)
शहीद-ए-इश्क़ की ये मौत है या ज़िंदगी यारब
नहीं मालूम क्यूँ बजती है शहनाई कई दिन से
—मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी
(22.)
ठहर ठहर के बजाता है कोई साज़ीना
मैं क्या करूँ मिरे सीने में इक रुबाब सा है!
—बाक़र मेहदी
(23.)
यूँ भी इक बज़्म-ए-सदा हम ने सजाई पहरों
कान बजते रहे आवाज़ न आई पहरों
—रशीद क़ैसरानी
(24.)
झूट का डंका बजता था जिस वक़्त ‘जमील’ इस नगरी में
हर रस्ते हर मोड़ पे हम ने सच के अलम लहराए हैं
—जमील अज़ीमाबादी
(25.)
कान बजते हैं हवा की सीटियों पर रात-भर
चौंक उठता हूँ कि आहट जानी-पहचानी न हो
—सलीम शाहिद
(26.)
साँस लीजे तो बिखर जाते हैं जैसे ग़ुंचे
अब के आवाज़ में बजते हैं ख़िज़ाँ के पत्ते
—जलील हश्मी
(27.)
लहराती ज़रा प्यास ज़रा कान ही बजते
इन ख़ाली कटोरों को खनकना भी न आया
—एज़ाज़ अफ़ज़ल
(28.)
तमाम जिस्म में होती हैं लरज़िशें क्या क्या
सवाद-ए-जाँ में ये बजता रबाब सा क्या था
—बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
(29.)
कहाँ पर उस ने मुझ पर तालियाँ बजती नहीं चाहें
कहाँ किस किस को मेरे हाल पर हँसता नहीं छोड़ा
—इक़बाल कौसर
(30.)
मुफ़लिसी जिन के मुक़द्दर में लिखी है ‘शम्सी’
उन के घर बजती नहीं है कभी शहनाई भी
—हिदायतुल्लाह ख़ान शम्सी
(31.)
वो तेरे लुत्फ़-ए-तबस्सुम की नग़्मगी ऐ दोस्त
कि जैसे क़ौस-ए-क़ुज़ह पर सितार बजता है
—नज़ीर मुज़फ़्फ़रपुरी
(32.)
ये मिरा वहम है या मुझ को बुलाते हैं वो लोग
कान बजते हैं कि मौज-ए-गुज़राँ बोलती है
—इरफ़ान सिद्दीक़ी
(33.)
रक़्स करता है ज़र-ओ-सीम की झंकार पे फ़न
मरमरीं फ़र्श पे बजते हुए घुंघरू की तरह
—इक़बाल माहिर
(34.)
दम साधे वो शब आया इक दीप जला लाया
तुर्बत पे असीरों की बजती रही शहनाई
—शुजा
(35.)
चिड़ियों की चहकार में गूँजे राधा मोहन अली अली
मुर्ग़े की आवाज़ से बजती घर की कुंडी जैसी माँ
—निदा फ़ाज़ली
(36.)
बजाता चल दिवाने साज़ दिल का
तमन्ना हर क़दम गाती रहेगी
—नौशाद अली
(37.)
बजता है गली-कूचों में नक़्क़रा-ए-इल्ज़ाम
मुल्ज़िम कि ख़मोशी का वफ़ादार बहुत है
—ज़ेहरा निगाह
(38.)
कान बजते हैं सुकूत-ए-शब-ए-तन्हाई में
वो ख़मोशी है कि इक हश्र बपा हो जैसे
—होश तिर्मिज़ी
(39.)
आई सहर क़रीब तो मैं ने पढ़ी ग़ज़ल
जाने लगे सितारों के बजते हुए कँवल
—सय्यद आबिद अली आबिद
(40.)
हम कहाँ रुकते कि सदियों का सफ़र दरपेश था
घंटियाँ बजती रहें और कारवाँ चलता रहा
—जमील मलिक
(41.)
किन किन की आत्माएँ पहाड़ों में क़ैद हैं
आवाज़ दो तो बजते हैं पत्थर के दफ़ यहाँ
—जावेद नासिर
(42.)
रह-गुज़र बजती है पाएल की तरह
किस की आहट को सदा दी हम ने
—ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
(43.)
वो शय जो बैठती है छुप के नंगे पेड़ों में
गुज़रते वक़्त बहुत तालियाँ बजाती है
—मुसव्विर सब्ज़वारी
(44.)
ऐसा नहीं कि आठ पहर बे-दिली रहे
बजते हैं ग़म-कदे में कभी जल-तरंग भी
—आफ़ताब हुसैन
(45.)
ये रात और ये डसती हुई सी तन्हाई
लहू का साज़ ‘क़मर’ तन-बदन में बजता है
—क़मर इक़बाल
(46.)
मिरे रहबर हटा चश्मा तुझे मंज़र दिखाता हूँ
ये टोली भूके बच्चों की ग़ज़ब थाली बजाती है
—मुसव्विर फ़िरोज़पुरी
(47.)
ये जमुना की हसीं अमवाज क्यूँ अर्गन बजाती हैं
मुझे गाना नहीं आता मुझे गाना नहीं आता
अख़्तर अंसारी
(48.)
ये दैर में नहीं बजते हैं ख़ुद-बख़ुद नाक़ूस
हरम में गूँज रही है बुतो अज़ाँ मेरी
—रियाज़ ख़ैराबादी
(49.)
कान बजते हैं मोहब्बत के सुकूत-ए-नाज़ को
दास्ताँ का ख़त्म हो जाना समझ बैठे थे हम
—फ़िराक़ गोरखपुरी
(50.)
आज ‘शाहिद’ उस के दरवाज़े पे पाँव रुक गए
रेडियो बजता था मैं चौंका कि शहनाई न हो
—सलीम शाहिद
(51.)
उस की सदा से गूँगे लम्हे पायल जैसे बजते हैं
बच्चों जैसा ख़ुश होता हूँ जब भी बारिश होती है
—हकीम मंज़ूर
(52.)
मुझे धोका हुआ कि जादू है
पाँव बजते हैं तेरे बिन छागल
—सय्यद आबिद अली आबिद
(53.)
आवाज़ों की भीड़ में इक ख़ामोश मुसाफ़िर धीरे से
ना-मानूस धुनों में कोई साज़ बजाता रहता है
—ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
(54.)
‘शफ़ीक़’ अहबाब अक्सर याद आते हैं हमें अब भी
हवा के साथ बजती तालियाँ आवाज़ देती हैं
—शफ़ीक़ आसिफ़
(55.)
तुम ने बुझाई बजती हुई बंसियों की कूक
मुझ से मिरे वजूद के तट तास छीन कर
—नासिर शहज़ाद
(56.)
चाँदनी के शहर में हमराह था वो भी मगर
दूर तक ख़ामोशियों के साज़ थे बजते हुए
—अम्बर बहराईची
(57.)
ये क्या तर्ज़-ए-मुसावात-ए-जहाँ है आदिल-ए-मुतलक़
कहीं आहें निकलती हैं कहीं बजती है शहनाई
—शिव रतन लाल बर्क़ पूंछवी
(58.)
किसी की याद चुपके से चली आती है जब दिल में
कभी घुंघरू से बजते हैं कभी तलवार चलती है
—नीरज गोस्वामी
(साभार, संदर्भ: ‘कविताकोश’; ‘रेख़्ता’; ‘स्वर्गविभा’; ‘प्रतिलिपि’; ‘साहित्यकुंज’ आदि हिंदी वेबसाइट्स।)