बची है नदी..
बची नदी की सूखी रेत
नीर पाताल में समा गया
उड़ रही है घाटों पर धूल
शुष्कता मौसम थमा गया
धरा की नमी हुई गायब
पेड़ पनपेंगे भला कहाँ
छाँव भी ढूंढे से न मिले
दो घड़ी सुस्ता लेते जहाँ
गायों की लुप्त हुई गोठान
भटकते फिरते बछड़े रोज
बरेदी हुए सभी लाचार
नहीं मिलते पांवों के खोज
फसल के घर कहलाते थे
रहे न शेष कहीं खलिहान
हाइब्रिड हो गए सभी अनाज
मिले न पुरानी देशी धान
समय का आया है यह दौर
तोड़ डाले खपरैल मकान
काटकर ध्वस्त कर दिए पेड़
खेत बन गए हरे मैदान
तोड़कर सम्बन्धों के बंध
अकेले पन में जीते लोग
प्राकृतिक सुख से हैं सब हीन
भोगते हैं सब भौतिक भोग
समय को लील रहा मोबाइल
दोनों आँखे हो रही कमजोर
वैचारिक प्रदूषण है आम
मचा सोशल मीडिया का शोर
रिपोर्टें है नार्मल सारी
फिर भी हैं लोग धरे बीमार
फैलती जाती महामारी
नहीं बन पाता कोई उपचार
विकल्प अब बचा है केवल एक
सभी जन करें कोशिश पुरजोर
पुनः नव जीवन पाने को
लौटें सब प्रकृति की ओर