बचपन
नन्हे से बन्दे,
बाबा के कन्धे,
बचपन के धन्धे।
बैठके वो शान से,
इतराते गुमान से,
बाबा के प्राण से।।
पापा तो सुनते नहीं,
मम्मी भी सुनती नहीं।
बाबा पे सारा गुस्सा,
निकालते वो ध्यान से।।
थोड़ी सी चोट लगती,
आँखों से नीर बहता,
बाबा का धीर बहता।
राग द्वेष होता नहीं,
ऊँच नीच जाने नहीं,
जात पात पता नहीं।।
अच्छा वो दौर होता,
सच्चा मन मोर होता,
सब कुछ चारों ओर होता।
झुकने में शर्म नहीं,
प्यार होता कम नहीं,
किसी बात का गम नहीं।।
खूब इतराते हैं,
हंसते हंसाते हैं,
मन की चलाते हैं।
बचपन वो समय होता,
अपनों से भरा होता,
सबका ही संग होता।।
बचपन की यादें देखो,
पचपन में आती बहुत।
समय का ये दौर फिर,
वापस है आता नहीं।।
बचपन सवारो आज,
बचपन है लूट रहा।
घर परिवार देखो,
आज पीछे छूट रहा।।
मासूम बचपन आज,
संस्कृति से भटक रहा।
मान सम्मान आज,
कराहटो में घुट रहा।।
प्रथम पाठशाला आज,
गुम कहीं हो रही।
मां की ममता आज,
दूर कहीं हो रही।।
आँचल वो प्यार वाला,
बचपन से दूर हैं।
गुस्सा वो प्यार वाला,
बचपन से दूर हैं।।
बचपन बचालो आज,
बचपने से दूर हैं।
गुमनाम अंधेरों में,
जाने को मजबूर हैं।।
कह रहा है ललकार,
होश में तुम आ भी जाओ।
देर अगर कर दिया तो,
होश फिर न आने पाए।।
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“ललकार भारद्वाज”