बचपन
बचपन में छोटी छोटी ज़िद पर
चोटी ही नहीं बनवाई ।
ऐसी लड़ाई मैंने माँ से
ना जाने कितनी बार लड़ाई ।
लम्बी लम्बी आंहे भर के
कितना सुकुड़ कर रोती थी ।
मुझे याद है , जब छोटी छोटी गलतियों की
वो डाँट कैसी होती थी!!
भरी दोपहर में चुपके से
मोहल्ला नाप आती थी ।
गुड्डे गुड़िया की शादी कराई, घर-घर खेला
और छुपके से आकर सो जाती थी ।
अब बड़ी हो गई हूँ और
गोल रोटी बनाना भी सीख लिया ।
और सीख लिया, माँ से घर को समेटना ,
खुद की ख्वाहिशों को दबाकर घर का बजट बनाना ।
और सीखा मैंने आम का अचार , घर की सजावट ,
परिवार के रीति-रिवाज और परम्पराएँ निभाना ।