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8 Aug 2019 · 1 min read

बचपन

याद है वो
बचपन के दिन,
किताब के
पन्नों के बीच,
हम मोर पंख
पाला करते थे।

उसमें रोज़-रोज़
चॉक झाड़ कर
पन्नों के बीच में
डाला करते थे।

इसी उम्मीद में
कि ये एक से
दो-चार हो जाएगें।

रोज़-रोज़,
पन्ने पलट कर देखते
और उसे फिर से
चॉक झाड़ कर
खाना देते।

कितना मासूम था,
वो बचपन,
है ना!

चलो चलते हैं
फिर से,
उन्हीं बचपन
को जीते हैं।

वहीं जहाँ
खट्टे-मिठे बैर
साथ -साथ
तोड़ते थे।

वो आमिया
जिसे चटकारे
भर कर खाते थे।

वो पाचक की
गुन्डी की पुड़िया,
मिल- बाँट कर खाते थे।

वो जब हम
गुड्डे -गुड़िया का
ब्याह रचाते थे।

अपने टुटे हुए
खिलौने से भी
प्यार जताते थे।

कितना मासूम था,
वो बचपन,
है ना!

चलो चलते हैं
फिर से,
उन्हीं बचपन
को जीते हैं।

-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली

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