क्या मिला मुझको उनसे
क्या मिला मुझको उनसे,
जिनको समझता रहा हूँ मैं,
अपने खून के रिश्तें,
और सोचता रहा हूँ जिनके लिए,
यह सोचकर कि अपने ही लोग हैं,
हो गए सब गुमनाम अपनी दुनिया में,
अपना अपना घर बसाकर।
क्या मिला मुझको उससे,
जिसके लिए बहाता रहा मैं,
अपना खून और पसीना दिन-रात,
मानकर उसको अपनी खुशी,
सींचता रहा जिसको हमेशा मैं,
अपना चमन और ख्वाब,
चला गया वह किसी का हाथ पकड़कर।
क्या मिला मुझको उससे,
जिसको किया मैंने दिल से प्यार,
अपना हमराह और नसीब मानकर,
अपनी जिंदगी की प्रार्थना समझकर,
जाता रहा जिसके लिए हर प्रार्थनाघर,
लगा लिया है उसने सीने से किसी को,
खुदा का उपहार समझकर अब।
क्या मिला मुझको उससे,
जिसके लिए लड़ता रहा जमाने से,
अपनी शान और इज्जत मानकर,
हो गया वह मुझसे तटस्थ आज,
मुझसे ज्यादा दौलत किसी से पाकर,
और हंसता है वह मेरी पराजय पर,
मुझसे ज्यादा वफादार उसको मानकर।
शिक्षक एवं साहित्यकार-
गुरुदीन वर्मा उर्फ जी.आज़ाद
तहसील एवं जिला- बारां(राजस्थान)