* बचपन *
गांव बचपन का भला या
गांव का बचपन भला
कौन जाने कब -कब
किसी ने किसको
नहीं *** छला
खेलते थे जब उछलकर
पेड़ की डाली से हम
बन्दरों को भी दे जाते थे
मात जब कूदे डाली से हम
चहचहाते थे हम सब
चिड़ियों के बच्चों से हम
एक कोलाहल सा मचा
होता था पूरे गांव में
डर का , ना था , कोई ठिकाना
ना दिल में, ना मेरे पांव में
साथियों से पाकर सह और
बढ़ जाती थी मेरी उमंग
तंग आ जाते थे घर और
घर के बाहर वाले सब
लौट आते तो आखिर
आ जाते उनकी जां में दम
बचपन में हम भी नही थे
शायद किसी से कम
कहकहा लगा के हंसते
चहचहाते भी थे हम
आज फिर याद आ गया
मुझको मेरा पराया सा बचपन
भूल ना पायेंगे चाहे हों ले अब पचपन के हम ।।
?मधुप बैरागी